झाबुआ – तेरापंथ समाज द्वारा 222 वां भिक्षु चरमोत्सव जप और तप के साथ मनाया । इस दिन समाज के कई श्रावक-श्राविकाओं द्बारा द्वारा उपवास, एकासान , बियासन, आदि तप भी किए । साथ ही लक्ष्मी बाई मार्ग स्थित तेरापंथ सभा भवन में लयबद्ध तरीके से ऊ भिक्षु जय भिक्षु का जप भी किया व शाम को धम्म जागरण कार्यक्रम का आयोजन भी किया । वही सिरियारी के संत आचार्य श्री भिक्षु के देवलोक गमन पर तेरापंथ समाज द्वारा इसे भाद्रपद शुक्ला त्रयोदशी को भिक्षु चरमोत्सव के रूप में मनाते है
सोमवार को तेरापंथ के आचार्य भिक्षु का 222 वां भिक्षु चरमोत्सव मनाया गया । सर्वप्रथम समाज श्राविका दीपा गादीया द्वारा…आओ…आओ भिक्षु स्वामी…गीतिका की प्रस्तुति दी गई । बच्चों ने मुक्तक के माध्यम से अपनी प्रस्तुति दी । तत्पश्चात तेरापंथ सभा अध्यक्ष मितेश गादीया ने धर्म परिवार को संबोधित करते हुए कहां कि वि.सं. 1783 आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी को कंटालिया ग्राम में आचार्य भिक्षु का जन्म हुआ। गृहस्थ अवस्था में 25 वर्ष रहने के बाद उन्होंने संयम पथ स्वीकार करते हुए भाव दीक्षा ग्रहण की । वे मूलतः स्थानकवासी संघ के सदस्य और आचार्य रघुनाथ जी के शिष्य थे। तेरापंथ धर्मसंघ का प्रवर्तन मुनि भीखण (भिक्षु स्वामी) ने किया था जो कालान्तर में आचार्य भिक्षु कहलाये । आचार्य संत भीखण जी ने जब आत्मकल्याण की भावना से प्रेरित होकर शिथिलता का बहिष्कार किया था, तब उनके सामने नया संघ स्थापित करने की बात नहीं थी। परंतु जैनधर्म के मूल तत्वों का प्रचार एवं साधुसंघ में आई हुई शिथिलता को दूर करना था।उन्होंने भौतिक लक्ष्यों, सम्मान और विलासिता का त्याग किया। अपने द्वारा बताए गए सिद्धांतों का सख्ती से पालन करके, उन्होंने शरीर और मानव चरित्र की कमजोरियों पर काबू पा लिया और एक दिव्य जीवन का मार्ग प्रशस्त किया। सभाध्यक्ष गादिया ने तेरापंथ नामकरण को लेकर बताया कि पूर्व में जोधपुर में एक बार आचार्य भिक्षु के सिद्धांतों को माननेवाले 13 श्रावक एक दूकान में बैठकर सामायिक कर रहे थे। उधर से वहाँ के तत्कालीन दीवान फतेहसिंह जी सिंधी गुजरे तो देखा, श्रावक यहाँ सामायिक क्यों कर रहे हैं। उन्होंने इसका कारण पूछा। उत्तर में श्रावकों ने बताया श्रीमन् हमारे संत भीखण जी ने स्थानकों को छोड़ दिया है। वे कहते हैं, एक घर को छोड़कर गाँव-गाँव में स्थानक बनवाना, साधुओं के लिये उचित नहीं है। हम भी उनके विचारों से सहमत हैं। इसलिये यहाँ सामायिक कर रहे हैं। दीवान जी के आग्रह पर उन्होंने सारा विवरण सुनाया, उस समय वहाँ एक सेवक जाति का कवि खड़ा सारी घटना सुन रहा था। उसने तत्काल 13 की संख्या को ध्यान में लेकर एक दोहा कह डाला ।
आप आपरौ गिलो करै, ते आप आपरो मंत। सुणज्यो रे शहर रा लोकां, ऐ तेरापंथी तंत॥
बस यही घटना तेरापंथ के नाम का कारण बनी। जब स्वामी जी को इस बात का पता चला कि हमारा नाम तेरापंथी पड़ गया है तो उन्होंने तत्काल आसन छोड़कर भगवान को नमस्कार करते हुए इस शब्द का अर्थ किया — हे भगवान यह तेरा पंथ है। आचार्य भिक्षु ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप से अभिमंडित एक अनुशासित धर्मसंघ की नींव रखी। उन्होंने पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति के तेरह नियमों का पालन करने का प्रण लेकर धर्मक्रांति की अलख जगायी । उन्होंने अड़तीस हजार पदों की रचना की । उनकी साहित्य रचना का प्रमुख विषय शुद्ध आचार परम्परा का प्रतिपादन, तत्व दर्शन का विश्लेषण और संघ की मर्यादाओं का सरल निरूपण था । उन्होंने विभिन्न सिद्धांतों में क्रांतिकारी बदलाव किया । जो समय बीतने के साथ अर्थहीन हो गए थे और इन सिद्धांतों को जन्म दिया। उन्होंने एक व्यवस्थित, अच्छी तरह से स्थापित और व्यवस्थित धार्मिक संप्रदाय की कल्पना की और इसे ‘ तेरापंथ के रूप में आकार लेते देखा। इस धार्मिक संघ को व्यवस्थित और स्थिर करने के लिए उन्होंने एक गुरु की विचारधारा का प्रचार किया और स्वयं शिष्यत्व की अवधारणा को समाप्त कर दिया। इस तरह एक आचार्य ,एक सिद्धांत, एक विचार और समान सोच की उनकी विचारधारा अन्य धार्मिक संप्रदायों के लिए आदर्श बन गई।