*ईर्ष्या भयंकर आग हे, इसमें जलकर व्यक्ति अपने आत्म गुणों को समाप्त कर लेता है ।* – प्रवर्तक पुज्य जिनेन्द्रमुनिजी म.सा.
झाबुआ । आत्मोद्धार वर्षावास में 12 अगस्त शुक्रवार को स्थानक भवन में पुज्य जिनेन्द्र मुनिजी म.सा. ने कहा कि जीव और कर्म का अनादिकाल से संबंध रहा है । जीव पूर्ण रूप से कर्म से बंधा हुआ है, वह कर्म के अधीन रहने के कारण कर्म बंध करता रहता है । जीव को कर्म का स्वरूप् अभी तक सही रूप् से समझ मे नही आया है, जब समझ में आ जाएगा कि मेरी आत्मा अनादिकाल से संसार कर्म के कारण परिभ्रमण कर रही हे, तो वह कर्म से मुक्त हो सकता है । *जीव महामोह, मिथ्यातव ओर मायाजाल में उलझा हुआ हे तथा संसार में दुःख उठा रहा हे ।*
आपने आगे कहा कि कोई व्यक्ति किसी असहाय, दीन-दुःखी,गरीब की सहायता करके उसे अपने जैसा बना देता है, संपन्न बना देता है, परन्तु वक्त आने पर सहायता प्राप्त व्यक्ति कृतघ्न बन जाता है । संसार में ऐसे व्यक्ति बहुत है । कृतज्ञता करने वाले की संपत्ति भी हडप लेते है, ऐसे व्यक्ति के मन में अशुभ भाव आते है तथा वह हत्या तक कर देता है । ऐसा व्यक्ति इस प्रकार के कृत्य करके महामोहनीय कर्म का बंध कर लेता है । जिन व्यक्तियों ने सहयोग दिया, माता-पिता, गुरू के प्रति कृतज्ञता प्रगट करनेपर आदर के भाव आते है, कृतज्ञ बनने पर उसके परिणाम मे कठोरता आती हे । तिर्यंच भी अपने उपकारी के प्रति कृतज्ञ होते है । उपकारी की रक्षा करना चाहिये, कृतज्ञता नही करना चाहिये ।
आपने आगे कहा कि संसार में कुछ व्यक्ति ईर्ष्या एवं जलन की भावना से युक्त होते है । ऐसे व्यक्ति मलीन बनकर अपने उपकारी के लाभ मे विध्न उत्पन्न करके कर्म बंध करते है ।जलन और ईर्ष्यावश अपने उपर किये हुए उपकार को भुल जाता है, तथा उसके बारे में विपरित सोचता है । वह छल प्रपंच करके उपकारी को नुकसान पहूंचाता है । ऐसे व्यक्ति का ह्रदय कठोर होता है, तथा हृदय के भाव मलीन हो जाते हेै । दिन भर मन में बुरे विचार आते रहते है । संसार में जीव नाना प्रकार के छल प्रपंच करके कर्म का बंध करता हे । मोह कर्म में वह अपना भान भूल जाता है । जीव मोह में आबद्ध होकर दूसरों पर अपना अधिकार जमाना चाहते है । व्यक्ति क्रोध में आकर ईर्ष्या जलन कर कर्म बंध करता है, फिर बार बार क्रोध कर भव -भव तक कर्म बंध करता रहता हे । जलन ओर ईर्ष्या भंयकर आग है, इसमे जल कर व्यक्ति अपने आत्मगुणों को समाप्त कर लेता है । व्यक्ति में क्रोध ,मान, माया, लोभ बढते जाते है । व्यक्ति को सामने वाले व्यक्ति की अच्छाई, गुणों को देख कर भले ही उसकी प्रशंसा नही करें, पर बुराई भी नही करना चाहिये । आपने तपस्या पूर्ण करने वाले तपस्वियो को धन्यवाद दिया । मोक्षमार्ग में संवर और तप सहायक है । तपस्वियों ने अनुकुल स्थिति नही होने पर भी अपने मन पर नियंत्रण रखा तथा दृढता बना कर मासक्षमण तप की उग्र तपस्या कर अपने कर्मो की निर्जरा की । यह तप उनके जीवन में मंगलमय और कल्याणकारी बने ।
*संयम अच्छा, ग्रहण करने योग्य तथा श्रेष्ठ है ।*
धर्म सभा में अणुवत्स पूज्य संयतमुनिजी म.सा. ने कहा कि भगवान महावीर स्वामीजी ने अंतिम देशना में गर्गाचार्य आचार्य के बारे मे बताया कि उनके बहुत सारे शिष्य थे, कोई शिष्य क्रोधी, अहंकारी थे । शिष्य उनकी आज्ञा का पालन नही करते थे । आचार्य जी के समझाने पर भी वे नही समझे, तो आचार्य श्री उनको छोड कर चल दिये । संयमी साधु उनकी खुशामद नही करते है, वे अप्रतिबद्ध रहते है, किसी से बंधे हुए नही होते हे । साधु ओर गृहस्थ में अंतर बताते हुए आपने कहा कि साधु किसी से दबे हुए नही होते है, जबकि गृहस्थी दबा हुआ रहता है । भगवान ने असंयम को छोड कर संयम अपनाने की बात कही । जिसकों यह संसार असार ओर दुःखमय लगे उसको संसार छोडना चाहिये । संसारी व्यक्ति को दुसरो की चमचागिरी करना पडती है, संबंधियों की जी-हुजुरी करना पडती हे । साधु को श्रावक की खुशामद नही करना पडती है, किसी की अपेक्षा नही करना पडती है । साधु को संसारी जैसे कार्य करना ही नही हे इसलिए ऐसे पांच महाव्रत धारी को किसी की भी जी’हुजुरी नही करना पडती हे । केवल सामयिक करने वाले व्रतधारी ही विशेष अतिथि होते है । साधु के वस्त्र,पात्र चोर चुरा ले, सामान लुट ले तो वे चोर डाकु की गरज खुशामद नही करते, परन्तु गृहस्थ को इस प्रकार की स्थिति आने पर खुशामद करना पडती है । अतः संयम ही श्रेष्ठ रास्ता है । संयम अच्छा है, संयम ही ग्रहण करने योग्य है । व्यक्ति में संसार छोड़ने के भाव होना चाहिये । जीव को संसार अच्छा लगता है, छोड़ने का मन नही होता है । संसारी की तन,मन की कमजोरी होती है । तन-मन की कमजोरी मिटाने के अनेक उपाय हे । साधु के लिये संयम ओर तप आवश्यक है । व्यक्ति जितना संयम में रहेगा ,पाप कम होंगें तथा तप से कर्म क्षय होगें । यहा अभी तप का दौर चल रहा है, संयम का दोैर भी चलना चाहिये । झाबुआ में तपस्या का वातावरण चल रहा है । जिस प्रकर सोना खदान में मिट्टी युक्त हो उस मिट्टी को तपाने पर सोना निखरता है, शुद्ध होता है, उसी तरह आत्मा अशुद्ध है, उस पर कर्मरूपी मिट्टी लगी हुई हे, इसे शुद्ध बनाने के लिये तपाना पडेगा । कर्म निर्जरा के लिये तपना हे । यश, प्रतिष्ठा, जय जयकार के वश तप नही करना हैै । कर्म से जीतने पर जय-जयकार होती है । तपस्या करने वालों की तपस्या का बारम्बार अनुमोदन करते हे ।
*आओ हम करे मासक्षमण तपस्वियों का अभिनंदन ।
तपस्वियों को सब करते हे शत शत नमन ।
तप से होती हे कर्मो की निर्जरा ।
तप से कटते है भव भव के बंधन ।।*
आज श्रीमती निधिता रूनवाल, श्रीमती आरती कटारिया के 31 उपवास पूर्ण होने पर उनका बहुमान तप की बोली लगा कर श्रीमती प्रवीणा दुग्गड ने 16 उपवास, श्रीमती मीनाक्षी मेहता ने 11 उपवास की बोली लगा कर किया । आज अक्षय गांधी ने 31 , श्रीमती आजाद बहिन श्रीमाल ने 17 ,श्रीमती भीनी कटकानी ने 10 उपवास के प्रत्याख्यान लिये । 10 तपस्वी वर्षीतप तथा अन्य कर्इ तपस्वी सिद्धितप, मेरूतप तथा अन्य तपस्या कर रहे है । तपस्वियों की तपस्या के उपलक्ष्य में चौबीसी का आयोजन दिन में तथा रात्रि में चल रहा हे । प्रवचन का संकलन सुभाष ललवानी ने किया । सभा का संचालन पदीप रूनवाल ने किया ।