झाबुआ – अध्यात्म और साधना से ओतप्रोत पर्युषण पर्वाधिराज निरंतर प्रवर्धमान हैं ।जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें आचार्य, आचार्य श्री महाश्रमणजी की सुशिष्या समणी निर्वाण प्रज्ञा जी और समणी मध्यस्थ प्रज्ञा जी के मंगल सन्निधि मे तेरापंथ सभा भवन पर पर्यूषण पर्व आध्यात्मिक रूप में मनाया जा रहा है। सोमवार को पर्युषण पर्वाधिराज का घठा दिन जप दिवस के रूप में मनाया गया। पर्युषण प्रारंभ से ही तेरापंथ समाज द्वारा नमस्कार महामंत्र का जप रोजाना 12 घंटे व जप दिवस पर 24 घंटे अखंड जप किया जा रहा है।
सुबह करीब 9:00 बजे स्थानीय तेरापंथ सभा भवन पर कार्यक्रम प्रारंभ करते हुए समणी मध्यस्थ प्रज्ञा जी ने सर्वप्रथम उपस्थित समाज जन को नमस्कार महामंत्र का जाप करवाया । पश्चात मध्यस्थ प्रज्ञा जी ने बताया कि मंत्र विविध शक्तियों का खजाना है। मनोयोगपूर्वक जाप करने से ये सारी शक्तियां जपकर्त्ता में धीरे-धीरे प्रकट होने लगती हैं। मंत्र-जप के मुख्य लाभ ये है दुर्बल मन को सबल बनाना।रोगी मन को स्वस्थ करना। तैजस शरीर को सक्रिय एवं आभामंडल का शोधन करना। चित्त की अंतर्मुखता को बढ़ाना। विराट् शक्तियों का नियोजन और दृष्ट शक्तियों का निग्रह करना। विचारों तथा भावनाओं का यथास्थान सम्प्रेषण करना। कर्म संस्कारों, बंधनों का विलय करना। पश्चात समणी जी ने नमस्कार महामंत्र के 5 पदो पर, रंगो के आधार पर और केंद्रों के आधार पर जप करना चाहिए , विस्तार पूर्वक बताया ।.इसके अलावा भी किस तरह नियमित रूप से जाप कर अपने कष्टों का निवारण कर सकते हैं समझाया । पश्चात समणी जी ने गीत का संगान किया ।
समणी निर्वाण प्रज्ञा जी ने धर्म सभा को संबोधित करते हुए कहा मंदिर जाना ,तपस्या,जप एवं व्रत करना अक्सर लोग जीवन भर यह क्रियाएं करते है और इसे ही धर्म बना लेते है। लेकिन वे अपने अहंकार को छोड़कर सरल नहीं बन सकते है। क्रोध को छोड़कर विनम्र नहीं बन सकते है। ईर्ष्या छोड़कर उदार नहीं हो सकते। जब तक व्यक्ति अपनी आत्मा को बदलने के लिए दृढ़ निश्चय नहीं करता है, तब तक कठोर सच्चाई यह है कि कोई भी भगवान,गुरु या धर्म कुछ भी भला नहीं कर सकते। इसलिए स्वभाव बदलिए,भाव बदलिए और स्वयं को बदलिए। नफरत के सौदागरों को अब मत पनपने दीजिए, सौहार्द की बात करने वालों को चहकने दीजिए। राष्ट्र के दुश्मन होते है नफरत के बीज बोने वाले, सद्भावना की बात करने वालों को महकने दीजिए…. मन में दुर्भावना रखकर ऊपर ऊपर से मीठे बोल बोलने के बजाय तो मन में सद्भावना रखकर कड़वे बोल बोलना कहीं बेहतर है। इंसान का पतन उस समय ही शुरू हो जाता है जब वो अपनों को गिराने की सलाह गैरों से लेता है। हिंदू ,मुस्लिम, सिख, ईसाई यह धर्म नहीं सिद्धांतों का बंटवारा है।धर्म वही है जिसने सिखलाया इंसान का इंसान से सिर्फ भाईचारा है। जिसमें दया और सद्भावना की बहती धारा है जो मानवता का पाठ पढ़ाता वही धर्म हमारा है। समणी जी ने यह भी कहा भगवान महावीर अणुव्रत प्रवर्तक थे । भगवान महावीर का आत्म धर्म जगत की प्रत्येक आत्मा के लिए समान था। दुनिया की सभी आत्मा एक- सी ही इसीलिए हम दूसरों के प्रति वही विचार एवं व्यवहार रखें जो हमें स्वयं को पसंद हों। यही महावीर का “जियो और जीने दो” का सिद्धांत है। महावीर ने दुनिया को पंचशील सिद्धांत बताए। पहला– अहिंसा -निरपराध जीवो की हिंसा के त्याग को अहिंसा कहते हैं। दूसरा सत्य-ऐसा झूठ बोलने का त्याग जिससे किसी का जीवन संकट में पड़ जाए उसे सत्य कहते हैं ।तीसरा– अचौर्य-चोरी की नियत से या बुरे इरादे से दूसरे की वस्तु का अपहरण करने का त्याग अचौर्य कहलाता है। चौथा– ब्रम्हचर्य पर स्त्री एवं पर -पुरुष का त्याग कर स्व -स्त्री व स्व- पुरुष में संतोष भाव रखने को ब्रह्मचर्य कहते है। पांचवा – अपरिग्रह – धन-धान्य आदि वस्तुओं में इच्छा का परिमाण रखते हुए परिग्रह के त्याग को अपरिग्रह कहते है। भारत की पुण्य धरा पर अनेक ऋषियों संतो तथा मनीषियों ने जन्म लेकर अपना तथा समाज का जीवन सार्थक किया है। ऐसे ही एक मनीषी थे आचार्य श्री तुलसी जो कि अणुव्रत आंदोलन के प्रणेता थे। आचार्य तुलसी जैन धर्म के श्वेतांबर तेरापंथ के नवमें आचार्य थे। अणुव्रत का प्रारंभ आचार्य तुलसी के द्वारा 1 मार्च 1949 में राजस्थान के सरदारशहर कस्बे में हुआ। आचार्य तुलसी यों तो एक पंथ के प्रमुख थे पर उनका व्यक्तित्व सीमातीत था। अपनी मर्यादाओं का पालन करते हुए भी उनके मन में संपूर्ण मानवता के लिए प्रेम था। इसलिए सभी धर्म और पंथ संप्रदायों के लोग उनका सम्मान करते थे। उनका जीवन एक खुली किताब की तरह था जिसे पढ़ने के लिए किसी तरह के अक्षरज्ञान की भी आवश्यकता नहीं थी। इतना ही नहीं उसे जितनी बार पढ़ो हर बार नए अर्थ उद्घाटित होते थे। श्रद्धालु घंटों उनके पास बैठ कर उनके प्रवचन का आनंद लेते थे। मानव में मानवता की प्रेरणा का नाम है -तुलसी।* इंसान हर घर में जन्म ले रहे पर इंसानियत कहीं-कहीं ही जन्म लेती है। आर्थिक ,सामाजिक राजनीतिक ,धार्मिक, शैक्षणिक पारिवारिक सभी क्षेत्रों में घुसी हुई विकृतियों का सुधार करना- अणुव्रत का लक्ष्य है। आज जीवन का कोई भी पक्ष निर्मल नहीं रहा है। अर्थप्रधान दृष्टिकोण ने सिद्धांतों और नीतियों को भी ताक पर रख दिया है। स्वार्थ चेतना का सूरज इतना तेज प्रकाश फेंकता है कि मनुष्य की आंखें चुंधिया गई है। अणुव्रत एक त्याग व संयम का आंदोलन है।