स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी एक महान् समाज सुधारक, देशभक्त तथा ईश्वरीय दूत के रूप में प्रकट हुए। परमात्मा ने सभी प्राकृतिक वस्तुयें समान रूप से प्रत्येक मनुष्य को प्रदान की है, उसी प्रकार वेद सबके लिए प्रकाशित है -सांसद गुमानसिंह डामोर । पीजीडीएव्ही कालेज दिल्ली मे आयोजित कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में सांसद डामोर ने विचार व्यक्त किये ।
स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी एक महान् समाज सुधारक, देशभक्त तथा ईश्वरीय दूत के रूप में प्रकट हुए। परमात्मा ने सभी प्राकृतिक वस्तुयें समान रूप से प्रत्येक मनुष्य को प्रदान की है, उसी प्रकार वेद सबके लिए प्रकाशित है -सांसद गुमानसिंह डामोर ।
पीजीडीएव्ही कालेज दिल्ली मे आयोजित कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में सांसद डामोर ने विचार व्यक्त किये ।
झाबुआ/रतलाम/आलीराजपुर । पूरे देश में आर्य समाज के संस्थापक स्वामी श्री दयानन्दजी सरस्वती के 200 वें जन्मोत्सव पर आयोजन कर उनके विचारों एवं मार्गदर्शन को लेकर बोद्धिक आयोजन किया गया । इसी कडी में दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राचिन महाविद्यालय पीण्जीण्डीण्एण्व्ही कालेज दिल्ली में स्वामी दयानन्दजी सरस्वती के जन्म के 200 वर्ष पूर्ण होने पर विशेष कार्यक्रम में स्वामी दयानन्दजी के विचारों व उनके व्यक्तित्व से हमारे देश को दिशा देने तथा रूढीवादिता के विरूद्ध आवाज को लेकर भव्य आयोजन किया गया । उक्त कार्यक्रम में रतलाम,झाबुआ,आलीराजपुर संसदीय क्षेत्र के सांसद गुमानसिंह डामोर को मुख्य अतिथि के रूप में आमन्त्रित किया गया ।
उक्त कार्यक्रम में संबोधित करते हुए सांसद श्री डामोर ने उपस्थित बुद्धिजीवीवर्ग एवं सदन को कहा कि महर्षि दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी, 1824 को हुआ था. वह बड़े समाज सुधारक थे जिन्होंने, उस वक्त चल रही असमानताओं का सामना किया और 1875 एक समान वाले समाज की स्थापना की थी। बचपन में महर्षि दयानंद को तमिलनाडु के मंजाकुडी – तिरुवरूर जिले में नटराजन के नाम से जाना जाता था। वह अपने 4 भाईयों में सबसे बड़े थे। वेदों की ओर लौटो का आह्वान करने वाले स्वामी दयानंद सरस्वती आधुनिक भारत के चिंतक और महान समाजसुधारक थे।1876 में उनके स्वराज्य के नारे पर लोकमान्य तिलक ने आजादी का अलख जगाया था।
सांसद डामोर ने कहा कि स्वामी दयानंद आर्य समाज के संस्थापक, महान चिंतक, समाज-सुधारक और देशभक्त थे। स्वामी दयानंद सरस्वती ने बाल विवाह, सती प्रथा जैसी कुरीतियों को दूर करने में अपना खास योगदान दिया है। उन्होंने वेदों को सर्वोच्च माना और वेदों का प्रमाण देते हुए हिंदू समाज में फैली कुरीतियों का विरोध किया। आर्य समाज के संस्थापक और सामाजिक सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि पर एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम लालजी तिवारी और माता का नाम यशोदाबाई था। स्वामी दयानंद सरस्वती के बचपन का नाम मूलशंकर था। मूल नक्षत्र में पैदा होने और भगवान शिव में गहरी आस्था रखने के कारण इनके माता-पिता ने इनका नाम मूलशंकर था। स्वामी दयानंद सरस्वती ने हिंदू, इस्लाम और ईसाई धर्म में फैली बुराईयों और अंधविश्वास का जोरदार खण्डन किया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने वेदों का प्रचार-प्रसार और महत्ता को लोगों तक पहुंचाने और समझाने के लिए देशभर में भ्रमण किया। इसके अलावा उनका मत था कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक पूरे देश में एक भाषा हिंदी भाषा बोली जाए। उन्होंने 1875 में मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की। आर्य समाज की स्थापना का मुख्य उद्देश्य शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने देश की आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्होंने स्वराज का नारा दिया था, जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया । महर्षि दयानंद ने देश में फैली तमाम तरह की कुरीतियों के खिलाफ अपनी आवाज को बुलंद की थी। वे जातिवाद और बाल-विवाह के खिलाफ थे। इसके आलावा उन्होने दलित उद्धार और स्त्रियों की शिक्षा के लिए कई तरह के आंदोलन किए।
श्री डामोर ने महती सभा को संबोधित करते हुए कहा कि स्वामी दयानन्द की गणना भारत के उन महान् पुरुषों में की जाती है जो हिन्दू जाति और हिन्दू राष्ट्र के पुनरुत्थान के लिए अवतरित हुए हैं। उनका भारतीय इतिहास में वही स्थान है जो स्थान महावीर, महात्मा बुद्ध एवं शंकराचार्य को प्राप्त है। वे एक महान् धर्म सुधारक, समाजसुधारक तथा निर्भीक सत्यवादी नेता थे। वे सत्य के दृष्टा एवं वेदों की सर्वोच्चता के समर्थक थे। उनके समय में भारत की राजनीति तथा सामाजिक स्थिति अत्यन्त शोचनीय थी। एक ओर विदेशी शासन के अन्तर्गत देशवासियों पर पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव स्थापित हो रहा था। दूसरी ओर हिन्दू समाज कुरीतियों एवं अन्ध विश्वासों का अखाड़ा बना हुआ था। इस विषय परिस्थिति में स्वामी दयानन्द ने भारतीय संस्कृति की रक्षा और प्राचीन गरिमा को पुनः स्थापित करने के लिए अपना तन मन धन सभी कुछ लगा दिया। उन्होंने अन्धविश्वास तथा पाखण्डवाद के विरुद्ध जबरदस्त आन्दोलन प्रारम्भ किया। वे एक राजनीतिक विचारक की अपेक्षा एक समाज सुधारक अधिक थे। उन्हें विश्व का सबसे महान् समाज सुधारक कहा गया है। स्वामी दयानन्द वैदिक धर्म के कट्टरता की सीमा तक ‘अनुयायी थे। फिर भी कभी उन्होंने कुप्रथाओं का समर्थन नहीं किया। वे हमेशा समाज में फैली कुप्रथाओं का विरोध किया करते थे। वे बाल-विवाह, दहेज प्रथा, बलात वैधव्य जैसी प्रथाओं का कट्टर विरोध करते थे।
विवेकपूर्ण जीवन साथी का चुनाव करने हेतु तथा सबल व स्वस्थ सन्तान हेतु वे कहा करते थे कि विवाह के समय लड़कों की आयु 25 वर्ष और लड़कियों की आयु कम से कम 16 वर्ष होनी चाहिए। इससे कम उम्र में विवाह से नैतिक जीवन तथा स्वास्थ्य जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। वे दहेज प्रथा को निर्मूल नष्ट करना चाहते थे तथा इस प्रथा को समाज के लिये अभिशाप बताया करते थे। वे विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया करते थे। उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज आज भी समाज के उत्थान में कार्यरत है।
श्री डामोर ने आगे कहा कि दयानन्द जी के काल में दलित वर्ग को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपमान और घुटन के वातावरण में रहना पड़ता था। उन्हें समाज में स्वतन्त्र अस्तित्व अथवा व्यक्तित्व के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं थी। बल्कि उन्हें हीन समझा जाता था। उन्हें मन्दिरों में जाने नहीं दिया जाता था और ना ही उन्हें वेद अध्ययन के योग्य माना जाता था। दयानन्द जी ने इसे पंडितों और ब्राह्मणों का पाखण्ड जाल बताया। वे कहा करते थे कि जैसे परमात्मा ने सभी प्राकृतिक वस्तुयें समान रूप से प्रत्येक मनुष्य को प्रदान की है, उसी प्रकार वेद सबके लिए प्रकाशित हैं। वे जाति के आधार पर शुद्र नहीं मानते थे किन्तु वे कहते थे, जिसे पढ़ना-पढ़ाना न आये, वह निबुद्धि और मूर्ख होने से शूद्र है। इस व्याप्त जाति प्रथा के कारण ही हिन्दू समाज असंगठित एवं शक्तिविहीन है। समाज को सशक्त और उन्नत बनाने हेतु जाति प्रथा एवं अस्पृश्यता को नष्ट करना ही होगा। इनके द्वारा चलाये गये आन्दोलन को महात्मा गांधी ने सम्बल प्रदान किया। इस विषय में महात्मा गांधी कहा करते थे “स्वामी दयानन्द जी की देनों में उनकी अस्पृश्यता के विरुद्ध घोषणा निःसन्देह एक महानतम् देन है।
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श्री डामोर ने आगे कहा कि यद्यपि स्वामी दयानन्द जातिवाद तथा अस्पृश्यता ‘आदि कुप्रथाओं के कट्टर विरोधी थे तथापि वे वर्णाश्रम के समर्थक थे। वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक होने पर भी प्रचलित वर्णाश्रम व्यवस्था का विरोध इस बात पर करते थे कि वर्ण कर्म के आधार पर निश्चित किया जाना चाहिये न कि जन्म के आधार पर। वे कर्म के साथ-साथ गुणों एवं प्रकृति का भी ध्यान रखने को कहते थे। यह सर्वविदित है कि आर्य समाज वर्णाश्रम व्यवस्था का इच्छित रूप प्राप्त नहीं कर सका परन्तु उसके बन्धनों को ढीला करने में अवश्य सफल हुआ। राजा राममोहन राय की भांति स्वामी दयानन्द भी मूर्तिपूजा का विरोध किया करते थे। वे अंधविश्वास तथा पाखण्ड को पूर्तिपूजा के द्वारा ही जन्मा मानते थे। इसलिए वे मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी थे उनका कहना था “यद्यपि मेरा जन्म आर्यावर्त में हुआ है और मैं यहाँ का निवासी भी हूँ.”परन्तु मैं पाखण्ड का विरोधी हूँ और यह मेरा व्यवहार अपने देशवासियों तथा विरोधियों के साथ समान है। मेरा मुख्य उद्देश्य मानव जाति का उद्धार करना है।” वे इस पर प्रकाश डालते हुए आगे कहते हैं कि वेदों में मूर्तिपूजा की आज्ञा नहीं है। अतःउनके पूजन में आज्ञा-भंग का दोष है। इसलिये इसे मैं धर्म विरोधी कृत्य मानता हूँ।
उन्होने आगे कहा कि स्वामी दयानन्द को भारतीय समाज में नारी की गिरती हुई स्थिति में व्यथित कर दिया। वे नारी के उत्थान के लिये वेदों में निहित इस श्लोक को दोहराया करते थे “यत्र नार्यस्तु, पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता।” अर्थात् “जहाँ नारी की पूजा है, वहाँ देवता निवास करते हैं।” उन्होने पर्दा प्रथा, अशिक्षा, तथा नारी की उपेक्षित और विपन्न होती स्थिति का घोर विरोध किया। उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज ने अनेक नगरों में आर्य कन्या स्कूलों की स्थापना की। इस प्रकार उन्होंने स्त्री शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार किया। उन्होंने नारी को समान अधिकार दिलवाये। नारी से सम्बन्धित अनेक कुप्रथाओं के विरुद्ध आन्दोलन चलाकर आर्य समाज ने स्त्रियों को समाज में उच्च स्थान दिलवाया। इस प्रकार स्वामी दयानन्द ने नारी उद्धार के लिए अनेक प्रयत्न किये।
स्वामी दयानन्द जी समाज के सर्वांगीण विकास के समर्थक थे। वे शिक्षा का ऐसा रूप चाहते थे जिससे बौद्धिक के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक व आत्मिक विकास भी हो। इसलिए वे पाश्चात्य शिक्षा पद्धति के विरुद्ध थे। वे व्यवस्था पर जोर देते वे अनिवार्य और निः शुल्क शिक्षा के समर्थक थे। गुरुकुल शिक्षा वे स्वयं गुजराती होते हुए भी आर्य भाषा के समर्थक थे। इसलिए उन्होंने अपनी समस्त रचनायें आर्य भाषा में कीं। एक बार उन्हें पुस्तकों के अनुवाद अन्य भाषा में कराने को कहा गया जिससे आर्य भाषा न जानने वालों को भी लाभ पहुँचे। उन्होंने आर्य भाषा की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा है “अनुवाद तो विदेशियों के लिये हुआ करता है। नागरी के थोड़े से अक्षर थोड़े दिनों में सीखे जा सकते हैं। जो आर्य भाषा सीखने में थोड़ा भी श्रम नहीं कर सकता, उससे और क्या आशा की जा सकती है? उसमें धर्म की लगन है, इसका क्या प्रणाम है ? आप तो अनुवाद की सम्मति देते हैं, परन्तु दयानन्द के नेत्र तो वह दिन देखना चाहते हैं जब काश्मीर से कन्याकुमारी तक, अटक से कटक तक नागरी अक्षरों का प्रचार होगा। मैंने आर्यावर्त भर में भाषा के सभ्य सम्पादन के लिये ही अपने सफल ग्रन्थ आर्य भाषा में लिखे और प्रमाणित किये हैं।” इस प्रकार दयानन्द जी ने भविष्य पर दृष्टि रखते हुए हिन्दी को मातृभाषा के रूप में अपनाया। इस प्रकार स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी एक महान् समाज सुधारक, देशभक्त तथा ईश्वरीय दूत के रूप में प्रकट हुए। उनके द्वारा स्थापित संस्था आर्य समाज भी भारत में उनके सिद्धान्तों का प्रचार एवं प्रसार कर रही है। उनके सामाजिक विचारों एवं समाज उत्थान हेतु किये गये कार्यों का मूल्यांकन करने पर यह कथन सत्य प्रतीत होता है कि ‘दयानन्द उच्च श्रेणी के निर्भीक दूत एवं समाज सुधारक थे।
आज भी स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी के विचार, उनके उपदेश, उनकी रूढीवादिता उन्मुलन के विचार तथा समाज को नव प्रेरणा, सामयिक है। उनके सिद्धांतो पर चल कर हम समावेशी समाज का निर्माण कर सकते है । स्वामी जी की देहांत सन् 1883 को दीपावली के दिन संध्या के समय हुआ।
इस कार्यक्रम मे उत्तरप्रदेश के पूर्वमंत्री एवं मथुरा के विधायक श्री शर्मा, बालाघाट के सांसद डा0 ढालसिंह बिसेन, संसद टीव्ही के मुख्य एंकर एवं महाविद्यालय के छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष श्री मनोज वर्मा, महाविद्यालय की प्राचार्य श्रीमती कृष्णा शर्मा, पूर्व प्राचार्य श्री अवस्थी, के अलावा महाविद्यालय के छात्र संघ के पूर्व पदाधिकारीगण, तथा महाविद्यालय के छात्रसंघ के पदाधिकारीण एवं बडी संख्या में छात्र-छात्रायें एवं बुद्धिजीवी वर्ग उपस्थित थे ।
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