झाबुआ । झाबुआ की धर्म धरा 27 अगस्त को महावीर स्वामी की जय, जैन धर्म की जय, अहिंसा परमोधर्म, तपस्वियों की जय जय कार, गुरूप्रवर के जय जय कारों से गुंज उठा ।झाबुआ शहर मे चातुर्मास के दौरान चल रहे तप, की कडी में 115 तपस्वियों का भव्याति भव्य पर घोडा 40 बग्गियों में बेण्डबाजो, हाथी घोडो, ताशो की गगनभेदी गुंज के साथ निकला तो पूरा नगर महावीर मय हो गया ।
प्रातः 9 बजे शहर के एम-2गार्डन से 40 सुसज्जित बग्गी में सवार होकर तपस्वियो का वरघोडा निकला , जो स्थानीय बस स्टेंड, थांदला गेट, आजाद चैक होते हुए राॅयल गार्डन पर समाप्त हुआ । इस शाही वरघोडे में प्रथम पंक्ति में हाथी, घोडे बेण्ड बाजे जो भक्ति भावना से गीत गुंजायमान कर रहे थे के अलावा नृत्यदल भी अपनी एक से बढ कर एक सुंदर प्रस्तुतिया देते हुए चल रहे थे ।इस वरघोडे के तपस्वियों के परिजन भी नाचते गाते हुए प्रफुल्लित मुद्रा में शामील हुए । वरघोडा नगर भ्रमण करते हुए अपरान्ह 11-30 बजे स्थानीय रायल गार्डन पहूंचा । जहां मुनि प्रवर पूज्य श्री चन्द्रयशविजय जी मसा. मुनि श्री जनक विजय जी मसा. मुनि श्री जिनभद्रजी मसा. की निश्रा में धर्म सभा के रूप् में परिवर्तित हो गया । इस अवसर पर सभी तपस्वियों का मस्तक पर मुकुट बांधे गये ,उनका तिलक, कुमकुम एवं गुलाब जल लाभार्थी परिवार द्वारा इनका स्वागत , वंदन, अभिनंदन किया गया । वही जैन धर्मावलम्बियों ने जैन धर्म का ध्वज लहराते हुए तपस्वीयो का भावभीना स्वागत किया ।
मुनि प्रवर, पूज्य श्री चन्द्रयशविजय जी मसा. मुनि श्री जनक विजय जी मसा. मुनि श्री जिनभद्रजी मसा. ने सभी 115 तपस्वियों का स्वागत करते हुए उनका अभिनंदन किया । धर्म सभा को संबोधित करते हुए मुनि प्रवर श्री चन्द्रयशविजय मसा ने कहा कि दुनिया भर में जैन धर्म अपने आप मे श्रेष्ठतम धर्म माना जाता है । उन्होने कहा कि जैन धर्म श्रमण परम्परा से निकला है तथा इसके प्रवर्तक हैं 24 तीर्थंकर, जिनमें प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) तथा अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी हैं। जैन धर्म की अत्यन्त प्राचीनता सिद्ध करने वाले अनेक उल्लेख साहित्य और विशेषकर पौराणिक साहित्यो में प्रचुर मात्रा में हैं। जो जिन के अनुयायी हों उन्हें जैन कहते हैं। जिन शब्द बना है संस्कृत के जि धातु से। जि माने – जीतना। जिन माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी तन मन वाणी को जीत लिया और विशिष्ट आत्मज्ञान को पाकर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान प्राप्त किया उन आप्त पुरुष को जिनेन्द्र या जिन कहा जाता हैश्। जैन धर्म अर्थात जिन भगवान का धर्म।.अहिंसा जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है। इसे बड़ी सख्ती से पालन किया जाता है खानपान आचार नियम मे विशेष रुप से देखा जा सकता है। जैन दर्शन में कण-कण स्वतंत्र है इस सृष्टि का या किसी जीव का कोई कर्ताधर्ता नही है। सभी जीव अपने अपने कर्मों का फल भोगते है। जैन दर्शन में भगवान न कर्ता और न ही भोक्ता माने जाते हैं। जैन दर्शन मे सृष्टिकर्ता को कोई स्थान नहीं दिया गया है। जैन धर्म में अनेक शासन देवी-देवता हैं पर उनकी आराधना को कोई विशेष महत्व नहीं दिया जाता। जैन धर्म में तीर्थंकरों जिन्हें जिनदेव, जिनेन्द्र या वीतराग भगवान कहा जाता है इनकी आराधना का ही विशेष महत्व है। इन्हीं तीर्थंकरों का अनुसरण कर आत्मबोध, ज्ञान और तन और मन पर विजय पाने का प्रयास किया जाता है। जैन ग्रन्थों के अनुसार अर्हत् देव ने संसार को द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से अनादि बताया है। जगत का न तो कोई कर्ता है और न जीवों को कोई सुख दुःख देनेवाला है। अपने अपने कर्मों के अनुसार जीव सुख दुःख पाते हैं। जीव या आत्मा का मूल स्वभान शुद्ध, बुद्ध, सच्चिदानंदमय है, केवल पुदगल या कर्म के आवरण से उसका मूल स्वरुप आच्छादित हो जाता है। जिस समय यह पौद्गलिक भार हट जाता है उस समय आत्मा परमात्मा की उच्च दशा को प्राप्त होता है। जैन मत स्याद्वाद के नाम से भी प्रसिद्ध है। स्याद्वाद का अर्थ है अनेकांतवाद अर्थात् एक ही पदार्थ में नित्यत्व और अनित्यत्व, सादृश्य और विरुपत्व, सत्व और असत्व, अभिलाष्यत्व और अनभिलाष्यत्व आदि परस्पर भिन्न धर्मों का सापेक्ष स्वीकार। इस मत के अनुसार आकाश से लेकर दीपक पर्यंत समस्त पदार्थ नित्यत्व और अनित्यत्व आदि उभय धर्म युक्त है। तपस्या के महत्व को बताते हुए मुनिश्री ने कहा कि तपस्या केवल भूखे रहने का सिद्धांत ही नहीं है अपितु संस्कार विशुद्धि की अद्भुत कार्यशाला है। मुनिश्री ने कहा कि जैन दर्शन के अनुसार तपस्या से पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा तो होती ही है और इससे तपस्वी की आत्मा भी निर्मल बनती है। 2 अक्षरों से बने तप शब्द के बारे में बताते हुए कहा कि तप में अणु से भी अधिक शक्ति समाहित होती है। अठाई व्रत साधना में मनुष्य का 8 दिनों तक भूखे रहना बहुत कठिन साधना है और जो व्यक्ति रसनेन्द्रिय को वश में रख सकता है वही व्यक्ति तप कर सकता है। भगवान महावीर स्वामी ने जीवन में मोक्ष के चार मार्ग बताए हैं, जिसमें से एक तप है और तप का वास्तविक अर्थ आत्मा विजातीय तत्वों को दूर करना और मानव इंद्रियों को वश में करना है तथा तप से शरीर में लाल कणों की वृद्धि होती हैं और रासायनिक परिवर्तन भी होता है। तपस्या के बारे में उन्होने बताया कि जैन धर्म का उपवास कैसे होता है तथा सिद्धी तप के बारे में बताते हुए कहा कि 44 दिनों की उग्र तपस्या में आराधकों को 36 दिन भूखा रहना होता है और 8 दिन भोजन करना होता है । दोपहर 1-30 बजे सामुहिक रूप से पारणा का कार्यक्रम आयोजित हुआ सभी 115 तपस्वियों को एक बडे कक्ष में बिठाया गया । तीनों मुनिप्रवरों ने सभी तपस्वियों को आशीर्वाद प्रदान करते हुए वासक्षेप डाल कर, उन तपस्या की सुखसाता जानते हुए पारणे की अनुमति प्रदान की और गुरूदेव की आज्ञा से सामुहिक पारणा शुरू हुआ । तपस्वियों की परिजनों ने अपने अपने तपस्वियों के पारणे का लाभ लिया । नगर की धर्मधरा पर रविवार को हुए 115 तपस्वियों के पारणे समारोह एवं भव्य वरघोडे ने एक इतिहास स्थापित किर दिया । इस कार्यक्रम की सफलता के लिये सभी समाजजनों ने एक दुसरें को बधाईया देते हुए तीनों गुरू प्रवण का कोटी कोटी नमन किया । कार्यक्रम के अंत में चातुर्मास मुख्य संयोजक संजय कांठी ने बाहर से पधारे सभी आगंतुकों का हृदय से आभार प्रकट किया व सहयोग के लिए धन्यवाद भी दिया ।