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झाबुआ

पुण्य कर्म के उदय से जीव को उत्तम कुल की प्राप्ति होती है -ः प्रवर्तक पूज्य जिनेन्द्र मुनिजी

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झाबुआ। 21 जुलाई, गुरूवार को पूज्य जिनेन्द्र मुनिजी म.सा. ने प्रवचन देते हुए कहा कि आज भगवान महावीर स्वामी का शासन चल रहा है। साधु, साध्वी, श्रावक-श्राविकाएं आराधना करके अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहे है। धर्म में 9 तत्व बताए गए है – जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष तत्व। इनमें जीव-अजीव, बंध जानने योग्य तत्व है। पुण्य, पाप, आश्रव, तत्व छोड़ने योग्य है। सवंर, निर्जरा और मोक्ष तत्व आदरणे योग्य है। संवर तत्व मुख्य है, आते हुए कर्मों को रोकना संवर है। आपने बताया कि संवर के 20 भेद है, पर मुख्य भेद समकित संवर हे। 7पकृतियो के क्षमोपक्षम होने से समकित संवर की प्राप्ति होती है। निग्रंथ प्रवचन धर्म को अच्छी तरह समझने पर जीव को समकित संवर प्राप्त होता है। यह धर्म सभी दुखों को नष्ट एवं क्षय करने वाला है। पांचवे आरे यह तक यह धर्म रहेगा। पांचवा आरा समाप्त होने पर सभी शास्त्र आदि विलुप्त हो जाएंगे। सूत्रकार महर्षि ने इसमें सभी विशेषताओं का समावेश किया है।
कर्म 2 प्रकार के होते है
मुनिजी ने बताया कि कर्म 2 तरह के होते है शुभ एवं अशुभ कर्म। 8 कर्मों में 4 कर्म घाती कर्म और 4 कर्म अघाती कर्म है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय कर्म आत्मा के गुणों की घात करने वाले है। वेदनीय, आयुष्य, नाम और गौत्र कर्म अघाती कर्म है, ये आत्मा के गुणों की घात नहीं करते है। शाता-अशाता वेदनीय कर्म है। शाता से जीव सुख और अशाता से जीव दुःख पाता है। नरक तिर्यंच का आयुष्य अशुभ है। मनुष्य और देव गति का आयुष्य शुभ हैै। नाम कर्म भी शुभ-अशुभ होते है। गौत्र कर्म में उच्च और नीच गोत्र होते है।
पुण्य कर्म के उदय से उत्तम कुल की होती है प्राप्ति
जिनेन्द्र मुनिजी ने आगे कहा कि उच्च गोत्र वाले पूज्यनीय होते है। पुण्य-पाप और आश्र्वछोड़ने योग्य है। नदी पार करने के लिए नांव की जरूरत होती है। किनारे पर पहुंच जाने के बाद नांव की जरूरत नहीं होती है। इसी तरह जब तक मोक्ष प्राप्त नहीं हो तब तक पुण्य की जरूरत है, पुण्य कर्म के उदय से उत्तम कुल की प्राप्ति होती है। जब तक पुण्य है, तब तक जीव धर्म-आराधना करता है। संवर से नए कर्म का बंध नहीं होता है, जो आत्मा सम्यक दृष्टि बन जाती है, उसे गाढ़े, चिकने कर्माे का बंध नहीं होता है। जीव जब हेय ज्ञय उपादेय को अच्छी तरह समझ जाता है , तब उसमें ऐसी श्रद्धा हो जाती है, वह इस मार्ग पर चलता है। सम्यग दृष्टि आत्मा को 7 बोलो का बंध नहीं होता हे । आपने मालव केसरी पूज्य शौभाग्यमलजी म.सा. की 22 जुलाई को पुण्यतिथि के उपलक्ष में 1 उपवास की तपस्या करने, संवर तप करने का आव्हान किया।
जीव चारो गति में दुःख भोगता है
अणुवत्स पूज्य संयत मुनिजी म .सा .ने धर्मसभा में बताया कि भगवान महावीर स्वामी ने इस भव के पूर्व चारों गति नरक, तीर्यंच, मनुष्य और देव गति में भ्रमण किया था। जीव चारो गति में भ्रमण करता है। केवल ज्ञान के आधार पर भगवान ने बताया कि जीव चारो गति में दुःख भोगता है। नरक में नारकी जीव दुःख भोग रहे है। चारो गति में ना जाकर मोक्ष में जाने की भावना रखना चाहिए, वहा सुख ही सुख है। नरक में दुःख ज्यादा है। (साधु-साध्वी को भी दुःख आते है।) तिर्यंच गति के जीव कितना दुःख भोग रहे है, ये हम स्वयं देखते है। भूख-प्यास सहन करना पड़ती है , बंधन में रहना पड़ता हैै, भार उठाना पड़ता है, मार भी पड़ती है, डर भी रहता है।
एक कदम आत्मोद्धार की ओर बढ़ाना है
मुनिजी ने कहा कि निगोद का दुःख नरक से भी ज्यादा है। जन्म मरण का ज्यादा दुःख निगोद में हे ।देवता को भी दुःख होता हे,वहां पर भी स्वामी सेवक का भाव है, आज्ञा का पालन करना पड़ता है। अंतिम समय आने पर देवता भी दुखी होते है। वे मनुष्य गति, पृथ्वीकाय में भी जा सकते है, एकेंद्रीय भी बन सकते है। मनुष्य गति में भी व्यक्ति अंतर से दुखी रहता है। अपमान, अनादर, अपशय, असत्कार भी होता है। प्रिय का वियोग हो जाए, तो भी दुखी होता है। कोरोनाकाल में व्यक्ति सबसे अधिक दुखी हुआ था। दुःख की खबर आने पर आनंद, खुशियां गायब हो जाती है। जीव को संयम से ज्यादा दुःख लगता है,परंतु संसार के दुःख के सामने संयम का कष्ट कुछ भी नहीं है । संसार दुःख रूप है, पर जीव को इससे निकलने का मन नहीं होता है। संयम दुःख रूप नहीं सुख रूप है। हमे असंयम भाव से संयम की ओर बढ़ना है। एक कदम आत्मोद्धार की ओर बढ़ाना है। धर्मसभा में मेघनगर से पधारे सुश्रावक कविन्द्र धोका ने 24 उपवास के प्रत्याख्यान लिए । श्रीमती राजकुमारी कटारिया, श्रीमती सोनल कटकानी, राजपाल मूणत ने 13उपवास ,श्रीमती रश्मि मेहता ने 11उपवास, 9श्राविकाओं ने 10उपवास तथा दो ने 9उपवास के व्रत नियम लिए । धर्मसभा का संचालन दीपक कटकानी ने किया ।

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