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झाबुआ

प्रशस्त क्रिया के बिना मोक्ष की प्राप्ति अंसभव है- पूज्य जिनेन्द्र मुनिजी~~ विषय बुरे नही है विकार बुरे हेै -पूज्य संयत मुनिजी

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प्रशस्त क्रिया के बिना मोक्ष की प्राप्ति अंसभव है- पूज्य जिनेन्द्र मुनिजी~~

विषय बुरे नही है विकार बुरे हेै -पूज्य संयत मुनिजी ’

झाबुआ। 30 जुलाई शनिवार को स्थानक भवन में धर्मसभा में पूज्य जिनेन्द्र मुनिजी म.सा. ने फरमाया कि अनादि काल से जीव पाप क्रिया मे प्रवृत्त है ।पांच प्रकार की इंद्रियों ने मन, वचन, काया द्वारा पाप क्रिया की है । धीरे धीरे कर्म बांधते, भोगते भोगते एक समय ऐसा आता है जब जीव एकेन्द्रिय से बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय,चउरेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय में आ जाता है, परन्तु पंचेन्द्रिय में भी जीव कभी कभी ऐसे कर्म बांधता है कि वह वापस एकेन्द्रिय जीव बन जाता हे । हमें भगवान जिनेश्वर देव का मार्ग मिला है, भगवान की वाणी सुनकर ज्ञान प्राप्त कर हेय को हेय समझ कर छोड़ना है तथा उपादेय को अपनाना हेै ।
आपने आगे फरमाया कि शुभ भाव से मोक्ष मार्ग के अनुकुल की गई क्रिया प्रशस्त ,क्रिया है । मन,वचन और काया से क्रिया होती हे । अक्रिया को जानना समझना आवश्यक है । अप्रशस्त क्रिया से कर्म का बंध होता है । ज्ञान के द्वारा जानकर अप्रशस्त क्रिया को मन,वचन और काया से छोडना चाहिये । मै अप्रशस्त क्रिया को छोड कर प्रशस्त किया को ग्रहण करूॅ,ऐसा संकल्प होना चाहिये । प्रशस्त क्रिया के बिना मोक्ष प्राप्ति असंभव हैे।
’जैन धर्म आस्तिक धर्म है ।’
आपने फरमाया कि जैन धर्म आस्तिक धर्म है । आज हमे जो मनुष्य भव प्राप्त हुआ है, वह पूर्व जन्म के शुभ कर्म के कारण मिला है । जैन धर्म कर्मवादी है । जैन धर्म में भगवान के वचनों को माना जाकर दृढता पूर्वक पालन किया जाता हे । मोक्ष के लिये क्रिया करना आवश्यक हे । बिना क्रिया किये मोक्ष जाने वाले बिरले होते हे । शुभ आराधना करते करते कर्म क्षय कर केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्षगामी बनते हे । ज्ञान और क्रिया से मुक्ति होती है ।
आपने आगे फरमाया कि दो कारणों से मोक्ष प्राप्त होता है, वे है ज्ञानऔर क्रिया । जिस प्रकार नदी में तैरने के लिये दोनों बांहों की जरूरत होती है, रथ के दो पहियों से ही रथ चलता है, उसी प्रकार ज्ञान और क्रिया हो तो ही मुक्ति मिलती है ।आत्मा को कर्म रहित बनाना है, ऐसा लक्ष्य रख कर क्रिया करना है । जैसे जैसे आत्मा को सम्यग ज्ञान होता है, वह हेय क्रिया को छोड कर उपादेय क्रिया ग्रहण करता हे । पाप की प्रवृत्ति अप्रशस्त्त क्रिया होती हे । साधु आठो प्रहर पाप क्रिया छोडते है।
जीव को मोहनीय कर्म का उदय होता है ,इस कारण से मन,वचन काया की क्रिया अशुभ भी होती है, उन अशुभ क्रिया को बार-बार हटाते जाना चाहिये । मोहनीय कर्म का सतत उदय चल रहा है। उस उदय अनुसार मन जाए ऐसी प्रवृत्ति नही करना । एकाग्रचित्त होकर, स्वाध्याय, सामायिक, माला गिनना, प्रवचनसुनना, प्रतिक्रमणकरना,। उस समय मन, वचन, काया की अशुभ क्रिया नही होए इसका ध्यान रखना चाहिये । अशुभ भाव से निवृत्त होना होगा । लंबे समय तक शुभ-भाव करते करते धीरे-धीरे मोहनीय कर्म मंद पडते जाते हैे, तब क्रिया शुभ की ओर आती है ।
’विषयो के रागद्वेस दूर करने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है’
पूज्य अणुवत्स संयतमुनिजी ने फरमाया कि भगवान महावीर स्वामी जी ने छोडने योग्य, ओर ग्रहण करने योग्य दोनो तरह के उपदेश दिए है । भगवान का कोई स्वार्थ नही था, न ही किसी से बैर-भाव था । भगवान ने जीव को कल्याण का मार्ग उसके हित के लिये बताया, उस मार्ग पर चलेंगें तो कल्याण होगा, अन्यथा संसार मे घुमते रहेगें । इन्द्रियो के विषय हेै वही संसार है, संसार हे वही विषय है। जिस प्रकार मदारी बंदर को नचाता है, जेसा नचाता है वह नाचता है, उसी तरह इन्द्रिया भी जीव को नचा रही हैे । जीव अनादिकाल से नाच रहा हे । ’विषय बुरे नही है विकार बुरे हेै विषयों के साथ आत्मा मिल जाये तो कर्मबंध होते हे । विषयों में आसक्त होने पर दुःख उठाना पडता हे । विषय भोगते है तो सुख प्रतीत होता है, जब उसके फल मिलते है, तो जीव दुःखी होता है । गृहस्थ के काम-भोग तुच्छ ,निस्सार, थोडे काल के है, इनको छोडने की ऐसी समझ कब आयेगी । विषयों में रागद्वेस जीव को दुःख पहूंचाते है, इनको दूर करने पर ही जीव सुखी होगा । आपने आगे फरमाया कि व्यक्ति को धन किस्मत से मिलता हे । कभी धन जोडता है तो लालच के कारण वापस चला जाता है ।जितना हो उसमें संतोष करना चाहिये, जैसे जेैसे लाभ बढता है, वैसे वेसे लोभ बढता जाता है । इसलिए संतोष जरूरी हे ।
’तपस्या से कर्म कटे अति भारी, तप के आगे नतमस्तक दुनिया सारी’ ।।
आज श्री राजपाल मुणत, श्रीमती राजकुमारी कटारिया, श्रीमती सोनल कटकानी ने 22 उपवास, श्रीमती रश्मि मेहता ने 20 उपवास, श्रीमती आरती कटारिया, श्रीमती रश्मि ,निधि, निधिता रूनवाल, श्रीमती नेहा, चीना घोडावत ने 19 उपवास, कु. खुशी चौधरी ने 12 उपवास, श्री अजय गांधी ने 18 उपवास के नियम ग्रहण किये ।इसके अलावा संघ में वर्षी तप, सिद्धितप, मेरूतप, चोला-चोला, तेला-तेला, बेला-बेला तप की तपस्याश्रावक-श्राविका कररहे है । तेला, आयंबिल तप की लडी गतिमान है । प्रवचन का संकलन सुभाषचन्द्र ललवानी द्वारा किया गया सभा का संचालन दीपक कटकानी द्वारा किया गया ।
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