Connect with us

झाबुआ

संघ की सोशल इंजीनियरिंग का असर…:धर्म परिवर्तन करने वालों को आरक्षण के लाभ से बाहर करने एकजुट हुए आदिवासी

Published

on

संघ की सोशल इंजीनियरिंग का असर…:धर्म परिवर्तन करने वालों को आरक्षण के लाभ से बाहर करने एकजुट हुए आदिवासी

रतलाम~(लेखक: रमेश राजपूत)~मालवा-निमाड़ के आदिवासी अंचल में इन दिनों एक नारा बहुत तेजी से चल रहा है-‘जो भोलेनाथ का नहीं वो मेरी जात का नहीं।’ यह अचानक नहीं हुआ है। संघ परिवार की दो दशक से चल रही सोशल इंजीनियरिंग का असर अब दिखने लगा है। छह महीने में रतलाम, धार-झाबुआ, खरगोन और बड़वानी जैसे जिलों में डीलिस्टिंग के समर्थन में रैलियां करने के बाद आदिवासियों ने ताकत दिखाने के लिए 10 फरवरी को भोपाल में गर्जना डीलिस्टिंग महारैली की। अगला लक्ष्य दिल्ली कूच का है, ताकि 1970 से संसद में लंबित डीलिस्टिंग बिल को पारित कराया जा सके।

गौरतलब है कि पूरे देश में सबसे अधिक आदिवासी मध्यप्रदेश में हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार उस समय इनकी जनसंख्या 1.53 करोड़ थी। इसमें 39 प्रतिशत अकेले भील हैं, जो सिर्फ मालवा और निमाड़ में रहते हैं। ऐसा माना जाता रहा है कि आदिवासियों में सबसे भोले भील ही हैं। यही वजह रही कि धर्मांतरण भी इनका ही तेजी से हुआ। नियम-कानूनों में ऐसे कोई सख्त प्रावधान नहीं थे, जिनसे इसे रोका जा सके। यही कारण है 2006 के बाद आरएसएस ने सबसे पहले जनजाति सुरक्षा मंच का गठन किया। धीरे-धीरे यह 14 राज्यों तक फैल गया।

डीलिस्टिंग- यानी जिनका धर्म बदला, उन्हें आरक्षण न दिया जाए

आजादी के बाद अनुसूचित जाति और जनजातियों को आरक्षण का लाभ देने का प्रावधान संविधान में ही किया था। 341-1 अनुसूचित जातियों के संबंध में व्याख्या करती है। 341-2 जनजातियों के लिए है। अनुसूचित जाति से यदि कोई धर्म परिवर्तन करता है तो उसे डीलिस्टेड माना है, जबकि जनजाति से धर्म परिवर्तन के बाद भी वह आदिवासियों को मिलने वाली सुविधाओं और आरक्षण का लाभ ले सकता है। विरोध की असली वजह भी यही है। इसकी शुरुआत 1967 में बिहार के जनजातीय नेता कार्तिक उरांव ने की थी। डीलिस्टिंग के लिए उन्होंने 235 सांसदों का समर्थन जुटाया और 1970 में प्राइवेट बिल लेकर आए। यही बिल आज तक लंबित है।

हम पंचायत से संसद तक जाएंगे

जनजाति सुरक्षा मंच मध्य भारत प्रांत के प्रमुख कैलाश निनामा आदिवासियों को इस मुद्दे पर एकजुट करने के लिए इस समय दो राज्य मप्र और छत्तीसगढ़ में सक्रिय हैं। निनामा कहते हैं-न्याय केंद्र सरकार को ही करना पड़ेगा, क्योंकि सिर्फ 5 प्रतिशत धर्मांतरण करने वाले लोग मूल जनजाति की 70 प्रतिशत नौकरियों, छात्रवृत्ति और विकास फंड का उपयोग कर रहे हैं।

इसका नतीजा यह है कि 95 प्रतिशत को लाभ का मात्र 30 फीसदी हिस्सा ही मिल पा रहा है। उन्होंने बताया कि अब तक देश के 288 जिलों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के नाम ज्ञापन दिए जा चुके हैं। 244 सांसदों का समर्थन जुटाया जा चुका है। दिल्ली कूच कब तक? उन्होंने कहा-जाना तय है डेट अभी तय नहीं की है।(Bhaskar se sabhar)

देश दुनिया की ताजा खबरे सबसे पहले पाने के लिए लाइक करे प्रादेशिक जन समाचार फेसबुक पेज

प्रादेशिक जन समाचार स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए मध्यप्रदेश का सबसे बड़ा मंच है। यहां विभिन्न समाचार पत्रों/टीवी चैनलों में कार्यरत पत्रकार अपनी महत्वपूर्ण खबरें प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं ।

Advertisement

Subscribe Youtube

Advertisement

सेंसेक्स

Trending

कॉपीराइट © 2021. प्रादेशिक जन समाचार

error: Content is protected !!