एक राष्ट्र एक चुनाव के बिल को यदि कानूनी रूप दिया जाता है तो निश्चित ही यह हमारी प्रजातांत्रिक प्रणाली में एक सुनहरा अवसर हो सकता है – सुश्री निर्मला भूरिया ।
एक देश एक चुनाव देश के विकास के लिये सामयिक ।
झाबुुआ । लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराये जाने के मसले पर लंबे समय से बहस चल रही है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी इस विचार का समर्थन कर इसे आगे बढ़ाया है। इस मसले पर चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग और संविधान समीक्षा आयोग विचार कर चुके हैं। अभी हाल ही में विधि आयोग ने देश में एक साथ चुनाव कराये जाने के मुद्दे पर विभिन्न राजनीतिक दलों, क्षेत्रीय पार्टियों और प्रशासनिक अधिकारियों की राय जानने के लिये तीन दिवसीय कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया था। इस कॉन्फ्रेंस में कुछ राजनीतिक दलों ने इस विचार से सहमति जताई, हैै । उक्त विचार प्रदेश की महिला एवं बाल विकास मंत्री सुश्री निर्मला भूरिया ने ’’एक देश एक चुनाव का समर्थन व्यक्त करते हूुए कही ।
क्यों है जरूरत एक देश एक चुनाव की
सुश्री भूरिया का विचार है कि किसी भी जीवंत लोकतंत्र में चुनाव एक अनिवार्य प्रक्रिया है। स्वस्थ एवं निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की आधारशिला होते हैं। भारत जैसे विशाल देश में निर्बाध रूप से निष्पक्ष चुनाव कराना हमेशा से एक चुनौती रहा है। अगर हम देश में होने चुनावों पर नजर डालें तो पाते हैं कि हर वर्ष किसी न किसी राज्य में चुनाव होते रहते हैं। चुनावों की इस निरंतरता के कारण देश हमेशा चुनावी मोड में रहता है। इससे न केवल प्रशासनिक और नीतिगत निर्णय प्रभावित होते हैं बल्कि देश के खजाने पर भारी बोझ भी पड़ता है। इस सबसे बचने के लिये नीति निर्माताओं ने लोकसभा तथा राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ कराने का विचार बनाया।गौरतलब है कि देश में इनके अलावा पंचायत और नगरपालिकाओं के चुनाव भी होते हैं किन्तु एक देश एक चुनाव में इन्हें शामिल नहीं किया जाता।
वे कहती है कि एक देश एक चुनाव लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ करवाने एक वैचारिक उपक्रम है। इस विचार को धरातल पर लाने के लिये इसकी विशेषताओं की जानकारी होना जरूरी है।
इसकी पृष्ठभूमि क्या है
उनका कहना हैैै कि एक देश एक चुनाव कोई अनूठा प्रयोग नहीं है, क्योंकि 1952, 1957, 1962, 1967 में ऐसा हो चुका है, जब लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ करवाए गए थे। यह क्रम तब टूटा जब 1968-69 में कुछ राज्यों की विधानसभाएँ विभिन्न कारणों से समय से पहले भंग कर दी गई। 1971 में लोकसभा चुनाव भी समय से पहले हो गए थे। जाहिर है जब इस प्रकार चुनाव पहले भी करवाए जा चुके हैं तो अब करवाने में क्या समस्या है।
एक तरफ जहाँ कुछ जानकारों का मानना है कि अब देश की जनसंख्या बहुत ज्यादा बढ़ गई है, लिहाजा एक साथ चुनाव करा पाना संभव नहीं है, तो वहीं दूसरी तरफ कुछ विश्लेषक कहते हैं कि अगर देश की जनसंख्या बढ़ी है तो तकनीक और अन्य संसाधनों का भी विकास हुआ है। इसलिए एक देश एक चुनाव की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
एक देश एक चुनाव के समर्थन में दिये जाने वाले तर्क
एक देश एक चुनाव का पक्ष लेते हुए उनका कहना है कि एक देश एक चुनाव के पक्ष में कहा जाता है कि यह विकासोन्मुखी विचार है। जाहिर है लगातार चुनावों के कारण देश में बार-बार आदर्श आचार संहिता लागू करनी पड़ती है। इसकी वजह से सरकार आवश्यक नीतिगत निर्णय नहीं ले पाती और विभिन्न योजनाओं को लागू करने समस्या आती है। इसके कारण विकास कार्य प्रभावित होते हैं। आदर्श आचार संहिता या मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट चुनावों की निष्पक्षता बरकरार रखने के लिये बनाया गया है। इसके तहत निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव अधिसूचना जारी करने के बाद सत्ताधारी दल के द्वारा किसी परियोजना की घोषणा, नई स्कीमों की शुरुआत या वित्तीय मंजूरी और नियुक्ति प्रक्रिया की मनाही रहती है। इसके पीछे निहित उद्देश्य यह है कि सत्ताधारी दल को चुनाव में अतिरिक्त लाभ न मिल सके। इसलिए यदि देश में एक ही बार में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव कराया जाए तो आदर्श आचार संहिता कुछ ही समय तक लागू रहेगी, और इसके बाद विकास कार्यों को निर्बाध पूरा किया जा सकेगा।
वे आगे बताती है कि एक देश एक चुनाव के पक्ष में दूसरा तर्क यह है कि इससे बार-बार चुनावों में होने वाले भारी खर्च में कमी आएगी। गौरतलब है कि बार-बार चुनाव होते रहने से सरकारी खजाने पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ता है। चुनाव पर होने वाले खर्च में लगातार हो रही वृद्धि इस बात का सबूत है कि यह देश की आर्थिक सेहत के लिये ठीक नहीं है। एक देश एक चुनाव के पक्ष में दिये जाने वाले तीसरे तर्क में कहा जाता है कि इससे काले धन और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने में मदद मिलेगी। यह किसी से छिपा नहीं है कि चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों द्वारा काले धन का खुलकर इस्तेमाल किया जाता है। हालाँकि देश में प्रत्याशियों द्वारा चुनावों में किये जाने वाले खर्च की सीमा निर्धारित की गई है, किन्तु राजनीतिक दलों द्वारा किये जाने वाले खर्च की कोई सीमा निर्धारित नहीं की गई है। कुछ विश्लेषक यह मानते हैं कि लगातार चुनाव होते रहने से राजनेताओं और पार्टियों को सामजिक समरसता भंग करने का मौका मिल जाता है जाता है,जिसकी वजह से अनावश्यक तनाव की परिस्थितियां बन जाती हैं। एक साथ चुनाव कराये जाने से इस प्रकार की समस्याओं से निजात पाई जा सकती है।
वही इसके पक्ष में तर्क यह भी है कि एक साथ चुनाव कराने से सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षा बलों को बार-बार चुनावी ड्यूटी पर लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इससे उनका समय तो बचेगा ही और वे अपने कर्त्तव्यों का पालन भी सही तरीके से कर पायेंगे। हमारे यहाँ चुनाव कराने के लिये शिक्षकों और सरकारी नौकरी करने वाले कर्मचारियों की सेवाएं ली जाती हैं, जिससे उनका कार्य प्रभावित होता है। इतना ही नहीं, निर्बाध चुनाव कराने के लिये भारी संख्या में पुलिस और सुरक्षा बलों की तैइसके अलावा बार-बार होने वाले चुनावों से आम जन-जीवन भी प्रभावित होता है।
चुनावों के इस चक्रव्यूह से देश को निकालने के लिये एक व्यापक चुनाव सुधार अभियान चलाने की आवश्यकता है। इसके तहत जनप्रतिनिधित्व कानून में सुधार, कालेधन पर रोक, राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण पर रोक, लोगों में राजनीतिक जागरूकता पैदा करना शामिल है जिससे समावेशी लोकतंत्र की स्थापना की जा सके।
यदि देश में एक देश एक कर यानी जीएसटी लागू हो सकता है तो एक देश एक चुनाव क्यों नहीं हो सकता? अब समय आ गया है कि सभी राजनीतिक दल खुले मन से इस मुद्दे पर बहस करें ताकि इसे अमलीजामा पहनाया जा सके।उन्होने बताया कि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की सरकार इसे लेकर काफी गंभीर है। देश के सर्वागिंण विकास के लिये सभी राजनैतिक विरोधों को त्याग कर इसे देश में लागू करना देश के लिये ही विकास का मार्ग प्रशस्त करेगा ।