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झाबुआ

स्मृतियां ही नही अनुभूतियां भी जिले की पत्रकारिता के जहन से नही निकल पाएगा। स्वर्गीय यशवंत घोड़ावत के 9 वी पुण्य तिथि पर विशेष।

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स्मृतियां ही नही अनुभूतियां भी जिले की पत्रकारिता के जहन से नही निकल पाएगा।
स्वर्गीय यशवंत घोड़ावत के 9 वी पुण्य तिथि पर विशेष।

मनोज चतुर्वेदी झाबुआ

                                                         बिछड़ा कुछ इस अदा से कि रुत ही बदल गई,
इक शख्स सारे शहर को वीरान कर गया,।
एक सूरज था कि तारों के घराने से उठा,
आँख हैरान है क्या शख्स ज़माने से उठा ।

स्वर्गीय यशवंत घोडावत’’दादा’’ को स्मरण करते हुए उपरोक्त पक्तियां निश्वित ही सामयिक लगती है,उनका बिछोह आज भी एक शून्य सा प्रतित होता है। 20 जनवरी 2013 की ठिठुरन भरी सर्द सुबह और उसमे भी तल घर के कार्यालय में अल सुबह बैठ कर अपनी नजर टेढ़ी करते हुए लिखा ’टेढ़ी नज़र’ कालम के बारे में किसे पता था कि यह सदी की अंतिम टेढ़ी नजर होगी दादा। बस आप तो सिर्फ हल्के से सीने में दर्द का कह कर दवाई ले कुछ समय आराम करने का कह कर गए थे, और  आप तो जिले की पत्रकारिता को अनाथ छोड़ सदा के लिए आराम करने चिर निंद्रा में चले गए। इस अहसास का मेरे जीवन के हर पल मुझे कलम के साथ आप से नाराजगी भरा रहेगा। आपके रहते जिले की पत्रकारिता ने जो ऊंचाईयां पाई वह आज अपने मुकाम पर तो किंतु आपकी कमी ने जिले की पत्रकारिता में नीत नए बदलाव ला दिए। आपके एक और अजीज कुंदन अरोड़ा भी आपकी तरह ही अचानक इस जिले की पत्रकारिता से हमे सदा के लिए विदा हो आपके संग पहुंच गए। जिले के शेष समकालीन पत्रकारिता के पुराधाओ ने इस युग की पत्रकारिता और मिडिया घरानों के होते व्यवसायीकरण के आगे अपनी कलम को आपके जाने के बाद विराम दे दिया,किंतु आपके द्वारा जिले में खड़ी की गई पत्रकारों की फौज, बनाए गए संगठन ने आपके विचारो,भावो, कलम की धार को जीवंत रखने का संकल्प आपको अंतिम विदाई देते हुए लिया था, वह आज भी कायम है और भविष्य में भी कायम रहेगा। समय परिवर्तनशील है, सुबह के बाद शाम, शाम के बाद रात और पुनः सुबह होना निश्चित ही हैे। बस इसी को ध्यान रख जिले में आपके दिए मार्गदर्शन में ठेठ ग्रामीण अंचल में आग उगलती पत्रकारिता तमाम संघर्षों के बाद भी जारी हेै, और आगे भी जारी रहेगी। जब बात दादा की पत्रकारिता और उनको पूरे जिले द्वारा ’’दादा’’ उपाधि से नवाजा जाने की, तो दादा भले ही ठेठ ग्रामीण कस्बे कल्याणपुरा में अल्प शिक्षित हो कर एक अखबार का विज्ञापन जिसमे पत्रकारिता में रुचि रखने वालो को आमंत्रित किया था पढ कर झाबुआ आ गए, फिर क्या था बस उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य पत्रकारिता शुरू कर दिया। हालाकि तत्कालीन समय पत्रकारिता, वह भी झाबुआ जेैसे भीलांचल में मुश्किल भरा ही नही अपितु आसमान से तारे तोड़ कर लाना जैसा था, बावजूद उसके घोड़ावत दादा ने अपने जुनून में कभी कमी नहीं आने दी। अपने लेखन,सामाजिक,धार्मिक कार्यों के लिए प्रदेश स्तर के पुरस्कारो की बारी भी आई किंतु दादा घोड़ावत ने बजाए  सम्मानित होने के जिले के दिन दुखियो, गरीबो, शोषितो,पीड़ितो और तंत्र में लगी भ्रष्टाचार की दीमक को खत्म करने अपनी कलम की धार पैनी करते चले। दादा घोड़ावत ठेठ ग्रामीण स्तर की न केवल आवाज बुलंद करते थे, वरन गांव गांव में आवाज बुलंद करने वाले युवाओं को प्रोत्साहित करने कलम चलाना सिखाते रहे, उसी का परिणाम है कि आज जिले के अंतिम पायदान तक भ्रष्टाचार,शोषण,सामाजिक कुरूतियो,के खिलाफ कलम के माध्यम से जंग लड़ने वाली की फौज खड़ी हैे। 1970 के दशक से 90 के दशक तक जो जिले की पत्रकारिता का संघर्षशील दौर था उससे आज निजात जरूर मिली । परंतु दादा के 50 वर्षीय पत्रकारिता के बाद भी जिले में शोषण,भ्रष्टाचार,सामाजिक कुरूतिया,माफियाराज जड़ से खत्म नहीं हो पाया जिसे वर्तमान दौर के साहसी युवा तरुणाई कलम के सहारे ही खत्म करना संभव हैे। जिले की पत्रकारिता का एक युग 20 जनवरी 2013 को खत्म हुआ परंतु जिस तरह साहित्य में एक युग के बाद दूसरा युग प्रारंभ हुआ उसी तरह जिले की पत्रकारिता का यह दूसरा युग अभी अपने शेषवस्था से तरुण होने लगा हेै, तो सिर्फ स्वर्गीय दादा घोड़ावत की स्मृतियों,अनुभूतियां,ओर उनके मार्गदर्शन का ही परिणाम हेै, जो जिले की पत्रकारिता के जहन से जन्मों जन्म निकल पाना संभव हेै।
दादा के बारे में स्वर्गीय मोतीसिंह परमार ने बताया था कि घोड़ावत जी तथा उनके घनिष्ठ संबंध रहे है। वर्षों तक उनका साथ बना रहा था। जब कभी उनके बारे में बोलने, लिखने का मौका मिलता तो समझ ही नहीं आता कहां से प्रारंभ किया जावे । उनके अनुसर घोड़ावतजी के जीते-जी उन पर तथा उनकी लेखनी पर अनेकों बार उंगलियां उठती रही, परंतु वे इस बात का गवाह रहे है कि उन्होने कलम से कभी समझौता नहीं किया। घोड़ावत जी नारियल के समान ऊपर से कठोर तथा अंदर से कोमल थे। अविभाजित झाबुआ में किसी पत्रकार पर कोई परेशानी आती तो सर्वप्रथम घोड़ावत ही उसकी मदद के लिये आगे आते थे। निःस्वार्थ भाव से उन्होने न सिर्फ पत्रकारिता की अपितु कई लोगों को पत्रकार भी बनाया। स्वर्गीय श्री घोड़ावतजी के पदचिन्हों पर चलना ही उनके लिये सच्ची श्रद्धांजलि होगी। दादा यशवंत जी घोडावत के सिद्धांतों, उनके मार्गो का अनुसरण करते हुए हम टेडी नजर के प्रणेता का स्मरण करते हुए यही कहेगें कि –

                                                 खोले पोल, खोले घोटाला,नही पहने नोटो की माला,
                                                जाये नही कभी मधुशाला, का्रंति की जो जलायें ज्वाला,
                                                 शब्द उसके हथियार हो वही तो सच्चा पत्रकार है।
                                                हुआ कहीं भी अन्याय यहां, कलम तलवार सी चलती है
                                               उसके शब्दों के बार से, नेता की कुर्सी हिलती है,
                                                जिसके हर शब्द कीे धार  है, वही सच्चा पत्रकार है ।
                                                बिक जाये किस्सोें मे डाकु-चोरो के हिस्सों में
                                                कलम का जो सोदा करे वो पत्रकार नही हो सकता ।

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