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झाबुआ

सभी सनातन धर्मावलम्बियों को अपने पितरों की कृपा-आशीर्वाद पाने के लिए श्राद्ध पक्ष के मध्य तर्पण, श्राद्ध कर्म आदि अवश्य करने चाहिए-पण्डित द्विजेन्द्र व्यास 29 सितम्बर से 14 अक्तुबर तक रहेगा श्राद्ध पक्ष ।

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सभी सनातन धर्मावलम्बियों को अपने पितरों की कृपा-आशीर्वाद पाने के लिए श्राद्ध पक्ष के मध्य तर्पण, श्राद्ध कर्म आदि अवश्य करने चाहिए-पण्डित द्विजेन्द्र व्यास
29 सितम्बर से 14 अक्तुबर तक रहेगा श्राद्ध पक्ष ।

झाबुआ । पितृ पक्ष का एक अनोखा महत्व है, यह अवधि हमारे पूर्वजों को समर्पित है। पितृ पक्ष 29 सितंबर 2023 से शुरू हो चुका है और 14 अक्टूबर 2023 को समाप्त होगा। पण्डित ज्योतिर्विद द्विजेन्द्र व्यास ने जानकारी देते हुए बताया कि पितृ पक्ष की शुरुआत पूर्णिमा से चुकी है । मूल रूप से पितृ पक्ष एक हिंदू कैलेंडर है जो एक निश्चित अवधि है जब लोग अपने पूर्वजों की पूजा करते हैं। यही वह समय है जब श्राद्ध और तर्पण की प्रक्रिया होती है। चातुर्मास के मौसम में, हिंदू एक पखवाड़े के दौरान अपने दिवंगत पूर्वजों का सम्मान करते हैं जिन्हें पितृ पक्ष के रूप में जाना जाता है। और आश्विन माह, कृष्ण पक्ष (पूर्णिमांत कैलेंडर के अनुसार) और भाद्रपद (अमावसंत कैलेंडर के अनुसार) में, यह पूर्णिमा के दिन (पूर्णिमा तिथि) के बाद शुरू होता है।
पण्डित द्विजेन्द्रव्यास के अनुसार यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि तारीख नहीं बदलतीय केवल महीनों के नाम ही बताते हैं। तर्पण और श्राद्ध संस्कार में शामिल होकर, व्यक्ति इस दौरान अपने मृत रिश्तेदारों को सम्मान देते हैं। 29 सितंबर को भाद्रपद पूर्णिमा दोपहर 3-26 बजे तक मनाई जाएगी। इस दिन के बाद, आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि शुरू होगी और 30 सितंबर को दोपहर 12.21 बजे तक रहेगी। पितृ पक्ष के भाग्यशाली समय के दौरान लोग तर्पण, पिंड दान, श्राद्ध, पंचबली भोग और पैतृक रिश्तेदारों के लिए कई अतिरिक्त समारोह करते हैं। तर्पण के रूप में मैदा, काले तिल, जौ और कुशा घास मिश्रित जल अर्पित किया जाता है।
पण्डित व्यास के अनुसार तर्पण विधि पितरों को तृप्त करने वाली मानी जाती है। बिना ब्राह्मण को भोजन कराए श्राद्ध की प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकती। धार्मिक सिद्धांत के अनुसार, पितृ पक्ष के दौरान अपने पूर्वजों का सम्मान करने से व्यक्ति की कुंडली से पितृ दोष दूर हो जाता है। चंद्र चक्र का घटता चरण आधिकारिक तौर पर पितृ पक्ष से शुरू होता है, जो पूर्णिमा के अगले दिन से शुरू होता है। यह करीब 15 दिन का समय काफी महत्वपूर्ण है। मृत रिश्तेदारों और पूर्वजों को तर्पण-तर्पणम और शरद जैसे अनुष्ठानों के माध्यम से सम्मानित किया जाता है।
लोकप्रिय मान्यता के अनुसार, मृतकों की दुखी आत्माएं पृथ्वी पर अपने प्रियजनों से तब मिलती हैं जब वे जीवित होते हैं। इसलिए, पिंडदान (पके हुए चावल और काले तिल से बना भोजन देना) में शामिल होकर, लोग अपनी प्यास बुझाने और अपनी भूख को शांत करने में सक्षम होते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि वे मोक्ष प्राप्त करें (मुक्ति प्राप्त करें)। जो व्यक्ति अब शारीरिक रूप से मौजूद नहीं हैं उन्हें संतुष्ट करने के कार्य को पिंड दान कहा जाता है।
पितृ पक्ष का महत्व बताते हुए उन्होने बताया कि प्राचीन भारतीय किंवदंती के अनुसार, जब महाभारत युद्ध के दौरान कर्ण की मृत्यु हो गई और उनकी आत्मा को स्वर्ग ले जाया गया, तो उन्हें सामान्य भोजन से वंचित कर दिया गया। इसके बदले में, उसे उपभोग के लिए सोना और जवाहरात मिले। उनकी आत्मा अधीर हो गई और उन्होंने स्वर्ग के स्वामी इंद्र से पूछा कि उन्हें वास्तविक भोजन क्यों नहीं दिया जा रहा है। वास्तविक कारण यह था कि भगवान इंद्र ने अपने जीवन के दौरान ये सभी वस्तुएं दूसरों को क्यों अर्पित कीं, लेकिन अपने पूर्वजों को नहीं। कर्ण की बात सुनने के बाद, भगवान इंद्र ने उसे 15 दिनों की अवधि के लिए पृथ्वी पर लौटने की अनुमति दी ताकि वह अपने पूर्वजों के लिए जीविका प्रदान कर सके। तब कर्ण ने कहा कि वह अपने पूर्वजों से अनभिज्ञ था। चंद्र चक्र का घटता चरण पितृ पक्ष से शुरू होता है। इस समय मृतक के सम्मान में विभिन्न समारोह किये जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि जिनकी आत्मा को मृत्यु में शांति नहीं मिलती वे अपने प्रियजनों की तलाश में पृथ्वी पर भटकते रहते हैं। सभी सनातन धर्मावलम्बियों को अपने पितरों की कृपा-आशीर्वाद पाने के लिए श्राद्ध पक्ष के मध्य तर्पण- श्राद्ध कर्म आदि अवश्य करने चाहिए।
पण्डित व्यास के अनुसार हर वर्ष पितरों की प्रसन्नता प्राप्ति और दुखों से मुक्ति पाने का पर्व श्राद्ध 16 दिनों तक मनाया जाता है।  सभी सनातन धर्मावलम्बियों को अपने पितरों की कृपा-आशीर्वाद पाने के लिए श्राद्ध पक्ष के मध्य तर्पण- श्राद्ध कर्म आदि अवश्य करने चाहिए। शास्त्र कहते हैं कि श्श्राद्धात परतरं नान्यच्छेयस्कर मुदाहृतम। तस्मात् सर्व प्रयत्नेन श्राद्धं कुर्यात विचक्षणः। अर्थात- इस संसार में दैहिक, दैविक, और भौतिक तीनों तापों से मुक्ति पाने के लिए श्राद्ध से बढ़कर कोई अन्य उपाए नहीं है। इसीलिए मनुष्य को यत्न पूर्वक श्राद्ध करना चाहिए। पितरों के लिए समर्पित माह ’श्राद्धपक्ष’ भादौं पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक मनाया जाता है। परमपिता ब्रह्मा ने यह पक्ष पितरों के लिए ही बनाया है। आदिकाल में सुर्यपुत्र यम ने परमेश्वर श्रीशिव की बीस हजार वर्ष तक घोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर वरदान के रूप में भगवान शिव ने उन्हें पितृलोक का भी अधिकारी बनाया। शास्त्र मत है कि जो प्राणी वर्ष पर्यन्त्र पूजा-पाठ आदि नहीं करते, वे भी अपने पितरों का श्राद्ध-तर्पण करके ईष्ट कार्यसिद्धि और पूण्य प्राप्त कर कर सकते हैं।
वर्षपर्यंत श्राद्ध करने के छियानवे अवसर आते हैं। ये हैं बारह महीनें की बारह अमावस्या, सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग के प्रारम्भ की चार तिथियां, मनुवों के आरम्भ की चैदह मन्वादि तिथियां, बारह संक्रांतियां, बारह वैधृति योग, बारह व्यतिपात योग, पंद्रह महालय-श्राद्ध पक्ष की तिथियां, पांच अष्टका पांच अन्वष्टका और पांच पूर्वेद्युह ये श्राद्ध करने छियानबे अवसर हैं। श्राद्ध पक्ष का समय आ गया है ऐसा जानकर पितरों को प्रसन्नता होती है। वे परस्पर ऐसा विचार करके उस श्राद्ध में मन के समान तीव्र गति से आ पहुचते हैं। अंतरिक्ष गामी पितृगण श्राद्ध में ब्राह्मणों के साथ ही भोजन करते हैं, जिन ब्राह्मणों को श्राद्ध में भोजन कराया जाता है उन्ही के शरीर में प्रविष्ट होकर पितृगण भी भोजन करते हैं उसके बाद अपने कुल के श्राद्ध करता को आशीर्वाद देकर पितृलोक चले जाते हैं।
पण्डित व्यास के अनुसार किसी भी माह की जिस तिथि में परिजन की मृत्यु हुई हो, श्राद्धपक्ष में उसी से संबधित तिथि में श्राद्ध करना उस पितृ का श्राद्ध करना चाहिए। कुछ खास तिथियां भी हैं जिनमें किसी भी प्रकार से मृत हुए परिजन का श्राद्ध किया जाता है। सौभाग्यवती अर्थात पति के रहते ही जिस महिला की मृत्यु हो गयी हो उन नारियों का श्राद्ध नवमी तिथि में किया जाता है। ऐसी स्त्री जो मृत्यु को तो प्राप्त हो चुकी किन्तु उनकी तिथि नहीं पता हो तो उनका भी श्राद्ध मातृनवमी को ही करने का विधान है।
सभी वैष्णव संन्यासियों का श्राद्ध एकादशी में किया जाता है जबकि शस्त्रघात, आत्म हत्या, विष, और दुर्घटना आदि से मृत लोंगों का श्राद्ध चतुर्दशी को किया जाता है। सर्पदंश, ब्राह्मण श्राप, वज्रघात, अग्नि से जले हुए, दंतप्रहार से, हिंसक पशु के आक्रमण से, फांसी लगाकर मृत्य, कोरोना जैसी महामारी, क्षय रोग, हैजा आदि किसी भी तरह की महामारी से, डाकुओं के मारे जाने से हुई मृत्यु वाले प्राणी श्राद्ध पितृपक्ष की चतुर्दशी और अमावस्या के दिन करना चाहिये। जिनका मरने पर संस्कार नहीं हुआ हो उनका भी अमावस्या को ही करना चाहिए।

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