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झाबुआ

श्रद्धा और समर्पण के समन्वय से, व्यक्ति आत्मा से परमात्मा बन सकता है :-साध्वी श्री उर्मिला कुमारी जी

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झाबुआ – तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमधिशास्ता आचार्य श्री महाश्रमण जी की सुशिष्या साध्वी श्री उर्मिला कुमारी जी ठाणा-4 के पावन सानिध्य में शहर के लक्ष्मीबाई मार्ग स्थित तेरापंथ सभा भवन पर निरंतर मंगल प्रवचन का क्रम जारी है ।इसी कड़ी में साध्वी श्री उर्मिला कुमारी जी ने ज्ञान, दर्शन, चरित और तप को मोक्ष प्राप्ति के मार्ग बताए हैं ।

रविवार को सुबह 9:15 बजे स्थानीय तेरापंथ सभा भवन पर मंगल प्रवचन के दौरान साध्वी श्री उर्मिला कुमारी जी ने धर्म सभा को संबोधित करते हुए कहा कि भगवान महावीर ने एक महान उद्घोषणा की… प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की ताकत है प्रत्येक आत्मा परमात्मा बन सकती है । प्रश्न हुआ , प्रत्येक आत्मा परमात्मा कैसे बन सकती है । इसके उपाय में भगवान ने कहा आत्मा को परमात्मा बनने के लिए किसी एक मार्ग को अपनाना होगा, वह पथ राजमार्ग होगा । आत्मा बंधन मुक्त है इसके लिए मार्ग का होना जरूरी है । कुछ लोगों का मानना है कि ज्ञान को छोड़ो , आचरण करो ,आचरण से मुक्ति मिलेगी । कुछ लोग कहते हैं ज्ञान को छोड़ो ,.आचरण की भी आवश्यकता नहीं है । सिर्फ भक्ति करो , शक्तिशाली प्रभु की चरण में चले जाओ । साध्वी श्री ने समझाते हुए बताया कि भगवान महावीर.ने कहा यह एकांकी दृष्टिकोण है जैन धर्म एकांकी दृष्टिकोण को मान्यता नहीं देता । भगवान ने कहा कि अलग-अलग एक दृष्टिकोण से आत्मा से परमात्मा नहीं बना जा सकता । ज्ञान और आचरण दोनों को होना जरूरी है । जैसे एक गाड़ी में दो पहिए होते हैं तथा एक पहिए से गाड़ी नहीं चल सकती । वैसे ही ज्ञान और आचरण की क्रिया दोनों का होना जरूरी है । कोरा ज्ञान काम का नहीं होता । उदाहरण देते हुए बताया कि जंगल में दो व्यक्ति घूम रहे थे एक अंधा था और एक पंगु । जंगल में आग लगने पर पंगु ने कहा मेरे तो पर है दौड़ कर चला जाऊंगा । उसने दौड़ लगाते हुए गया और वह आग में चला गया । वहीं अंधा.आग के फैलने से फस गया और इस प्रकार दोनों ही आग में जल गए । वही यदि दो और व्यक्ति अंधे और पंगु थे ।. उन्होंने जंगल में आग लगने पर सोचा तुम चल सकते और मैं देख सकता हूं और दोनों एक दूसरे का सहारा बने और आग से बचते हुए जंगल से बाहर निकल गए । इसी प्रकार ज्ञान और आचरण की क्रिया आपस में मिल जाए, तो मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो सकता है । ज्ञान और क्रिया दोनों अपेक्षित है । मोक्ष प्राप्ति के चार साधन बताएं – ज्ञान ,दर्शन, चरित्र और तप । वहीं दूसरे शब्दों में ज्ञान , श्रद्धा , निग्रह, चरित्र , यह भी मोक्ष के मार्ग हैं । केवल ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है यदि उसे पर श्रद्धा नहीं है ईष्ट के प्रति श्रद्धा नहीं है ईष्ट के प्रति समर्पण नहीं है । तो उसके प्रति तादात्म्य नहीं जुड सकता ।. जब श्रद्धा होगी तो व्यक्ति आत्मा से परमात्मा बन सकता है । श्रद्धा और समर्पण का समन्वय ना हो तो कुछ भी नहीं मिल सकता । ज्ञान , दर्शन, चरित्र , तप का समन्वय अपेक्षित है तप से निर्जरा होती है पूर्व संस्कारों का शोधन हम तप के द्वारा कर सकते हैं । इन साधनों के द्वारा हम आत्मा से परमात्मा बन सकते हैं । केवल भक्ति व तपस्या से आत्मा को मुक्ति नहीं मिल सकती । त्याग को वंदन होता है वेश को वंदन नहीं होता ।

साध्वी श्री ने यह भी बताया कि दुनिया में जय-पराजय की बात आती है। लोकसभा, विधानसभा, पंचायत स्तरीय चुनाव आदि होते हैं। इसमें कोई एक व्यक्ति विजयी होता है तो कोई पराजय को प्राप्त करता है। इसी प्रकार कहीं दो पक्षों, दो व्यक्तियों, दो देशों आदि में युद्ध होता है तो एक विजयी होता है तो दूसरा हार जाता है। न्यायालय के मुकदमे में भी एक पक्ष जीत जाता है तो दूसरा हार जाता है। यदि कोई आदमी दस लाख योद्धाओं पर भी विजय प्राप्त कर ले ,तो उसे परम विजयी नहीं कहा जा सकता। एक अपनी आत्मा पर विजय प्राप्त करने वाले को परमजयी कहा जा सकता है। क्योंकि स्वयं से स्वयं को जीतना बड़ा कठिन होता है। स्वयं अर्थात अपनी आत्मा पर विजय प्राप्त करने वाला परम विजय को प्राप्त कर लेता है। प्रश्न हो सकता है कि आत्मा तो दिखाई नहीं देती, उस पर विजय कैसे प्राप्त की जा सकती है? इसका समाधान देते हुए बताया कि जो आदमी अपने शरीर, वाणी, मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह अपनी आत्मा पर विजय प्राप्त कर लेता है। शरीर, वाणी, मन और इन्द्रियों पर अनुशासन हो तो आदमी अपनी आत्मा पर अनुशासन कर सकता है। ध्यान-साधना के माध्यम से शरीर को स्थिर और मन को नियंत्रित किया जा सकता है। अपने शरीर पर अनुशासन करने के लिए आदमी कोई अनावश्यक कार्य न करे। भोजन भी करे तो कब, क्यों, कैसे, कितना और किस तरह आदि प्रश्नों पर विचार कर भोजन करे। इस प्रकार शरीर पर अनुशासन किया जा सकता है। आदमी को अपनी जुबान पर भी लगाम लगाने का प्रयास करना चाहिए। बोलना अथवा न बोलना महत्त्वपूर्ण नहीं, वाचाल होना अथवा मौन हो जाना भी बड़ी बात नहीं, बोलने और नहीं बोलने का विवेक होना बहुत विशेष बात होती है। आदमी की वाणी मधुर और यथार्थ हो। इसी प्रकार मन को नियंत्रित करने के लिए श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में बताया कि अभ्यास और वैराग्य से मन को नियंत्रित किया जा सकता है। आदमी को अपनी इन्द्रियों पर भी संयम रखने का प्रयास करना चाहिए। पांचों ज्ञानेन्द्रियों का सम्यक् उपयोग करने का प्रयास हो। इस प्रकार आदमी अपनी आत्मा पर विजय प्राप्त कर परम जय को प्राप्त कर सकता है।

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