राजपुत समाज की अभिनव पहल, बेटा बेटी एक समान । ढूंढ प्रथा का निर्वहन कर समाज में दिया एक प्रेरक सन्देश । लडका लडकी के भेंद भाव को खत्म करते हुए समाज में ढूंढ बालक एवं बालिका का भेंद नही रखते हुए सभी के साथ मनानेे की परम्परा को स्थापित किया- रविराजसिंह राठौर
राजपुत समाज की अभिनव पहल, बेटा बेटी एक समान ।
ढूंढ प्रथा का निर्वहन कर समाज में दिया एक प्रेरक सन्देश ।
लडका लडकी के भेंद भाव को खत्म करते हुए समाज में ढूंढ बालक एवं बालिका का भेंद नही रखते हुए सभी के साथ मनानेे की परम्परा को स्थापित किया- रविराजसिंह राठौर
झाबुआ । हमारी संस्कृति एक दर्पण की तरह होती है जिसमें समाज के पूरातन रीति रिवाजों को सहेज कर रखा जाता है। झाबुआ नगर के राजपुत समाज द्वारा भी होलिकोत्सव के अवसर पर जिस प्रथा को सतत कायम रखा गया है उसे ’’ढूंढ’’ के नाम से जाना जाता है। राजपुत समाज के अलवा भी अन्य कई समाजों में भी ढूण्ढ प्रथा अभी भी प्रचलित है। इस बारे में राजपुत समाज के उपाध्यक्ष रविराजसिंह राठौर ने जानकारी देते हुए बताया कि आम तौर पर बच्चे पैदा होने के बाद पहली होली पर ढूंढ की जाती है । ढूंढ लड़का और लड़की दोनों की एक समान होती है । होली के दूसरे दिन प्रातः समाज के सब लोग इकट्ठे होकर जिसके घर बच्चा पैदा हुआ है, उसके घर जाते हैं । घर के चैक में पाटे पर बच्चे का नजदीकी रिश्तेदार बच्चे को गोद में लेकर बैठता है । एक बांस लेकर दो आदमी दोनों सिरों को पकड़ कर खड़े हो जाते हैं । दूसरे सभी आदमियों के हाथों में लकड़िया होती है जिनसे बांस पर हल्की चोट मारते जाते हैं और गीत गाते जाते हैं-हरि हरि रे हरिया दे, जीमणे हाथ सबड़को ले । डावे हाथ चंवर डुला, जिण घर जितरी डिकरियां ।उण घर उतरा डीकरा, गेरियों री पूरी आश । और अंत में बांस को हाथों में ऊपर उठाते हुए कामना करते हैं कि बच्चा बांस से भी ज्यादा लम्बा बढ़े । बच्चे का बाप ढूंढ करने वालो को एक नारियल तथा गुड़ देता है यदि प्रथम लड़के या लडकी की ढूंढ है तो खुशी से शीतल पेय भी पिलाते हैं । समाजजनो की ढूंढ पूरी हो जाती है तब सब जगह से इकट्ठे हुए नारियल और गुड़ को मोहल्ले में बांट देते हैं ।
उन्होने बताया कि प्रचलित प्रथा के अुनुसार बच्चे की बुआ ढूंढ के मौके पर ढूंढेकड़ा लाती है जिसमें बच्चे के कपड़े, जेवर तथा खिलौनें लाती है । खर्चा अपनी क्षमता के अनुसार किया जाता है मगर बच्चे का बाप अपनी बहिन जितना खर्चा करती है उससे ज्यादा ही खर्चा करता है । ढूंढेकड़ा लड़का होने पर ले जाया जाता है, लड़की पैदा होने पर नहीं । किन्तु राजपुत समाज ने लडका लडकी के भेंद भाव को खत्म करते हुए समाज में ढूंढ बालक एवं बालिका का भेंद नही रखते हुए सभी के साथ मनानेे की परम्परा को स्थापित कर दिया है।
समाज के अध्यक्ष भेरूसिंह सोलंकी ने जानकारी देते हुए बताया कि राजपूत समाज झाबुआ के द्वारा पुरातन परंपरा का निर्वहन करते हुए इस वर्ष भी जिन परिवारों में मृत्यु हुई वहां जाकर विधि विधान पूर्वक त्योहार पर रंग डालकर मृत्य सूतक था, उसे रंग डालकर समाप्त किया । एवं जिन परिवारों में नए सदस्य के रूप में बेटा या बेटी का जन्म हुआ उन परिवारों में राजपूत समाज की अति प्राचीन प्रथा ढूंढ का निर्वहन किया। जिसमें सिर्फ बेटे के जन्म पर ही यह प्रथा रही, लेकिन समय को देखते हुए राजपूत समाज ने भी बेटे और बेटी के भेद को समाप्त कर बेटी के जन्म पर भी ढूंढ प्रथम प्रारंभ किया और इस प्रथा में जन्मे बेटे या बेटी के सर पर पापड़ को बांस की पतली दो लड़कियों के द्वारा तोड़ा जाता है और फिर सभी का गीत गाते हैं एवं आशीर्वाद देते हैं एवं शुभ मंगल कामना के गीत गाए जाते हैं । और ढोल के साथ नृत्य कर परिवार को बधाई दी जाती है और इन प्रथा के पूरे होने के बाद ढोल के साथ नगर के विभिन्न मार्गो में बाइक के द्वारा भ्रमण किया सभी समाजजनों को होलीकोत्सव की बधाईयां दी ।
राजपुत समाज की इस प्रथा निर्वहन के अवसर पर नगर की कर्मचारी आवास कालोनी में कैलाशसिंह चैहान की पोती की ढूंढ के अवसर पर समाज के अध्यक्ष भेरू सिंह सोलंकी,उपाध्यक्ष रविराज सिंह राठौर,सचिन शंभूसिंह चैहान, कोषाध्यक्ष गहलोत, उपाध्यक्ष महेंद्र सिंह सोलंकी,दुर्गेशसिंह पवार, लोकेंद्रसिंह पवार, अनिलसिंह बोडाना, सुजानसिंह सांखला, परामर्शदाता रामगोपाल सोनगरा, मुकेश सिसोदिया बुढ़ाना, महेंद्रसिंह पवार, गुड्डू भाई सहित बडी संख्या में समाजजन उपस्थित रहें । समाज के उपाध्यक्ष रविराजसिंह राठोर ने उक्त पुरातन प्रथा के निर्वहन होने पर सभी समाजजनों को बधाईया दी तथा समाज में आई वैचारिक क्रांति के लिये धन्यवाद ज्ञापित किया ।
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