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भाजपा की खुली प्रवेश नीति – एक विश्लेषण    – प्रो. डी.के. शर्मा

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भाजपा की खुली प्रवेश नीति – एक विश्लेषण  – प्रो. डी.के. शर्मा

जब भी आम चुनाव की घोषणा होती है, आया राम-गया राम शुरू हो जाता है। व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए राजनीति करने वाले लोग दल बदलना प्रारंभ कर देते हैं। वैसे तो सभी राजनैतिक दलों से लोग इधर-उधर होते हैं, किन्तु इस बार यह गतिविधि बहुत अधिक हुई। अधिकतर राजनीति के खिलाड़ी अन्य दलों से भाजपा की ओर दौड़ पड़े। एक तरह से भगदड़ मच गई। नरेन्द्र मोदी ने जिस आत्मविश्वास के साथ स्वयं के तीसरे कार्यकाल की घोषणा की उससे अधिकतर राजनैतिक दलों ने आत्मविश्वास खो दिया। राजनैतिक रोटियां सेकने वालों ने भाजपा की ओर दौड़ लगा दी। भाजपा ने भी अपने दरवाजे दल-बदलुओं के लिए खोल दिए। एक तरह से भाजपा बिना दरवाजे की धर्मशाला हो गई। जिसमें आने पर कोई प्रतिबंध नहीं। भाजपा की यह खुले दरवाजे की नीति का विश्लेषण करना उचित प्रतीत होता है।

            नरेन्द्र मोदी ने अपने चुनाव अभियान का प्रारंभ अबकी बार 400 पार की घोषणा के साथ किया। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भाजपा ने अपने दरवाजे सबके के लिए खोल दिए। एनडीए का कुनबां तेजी से बढ़ने लगा। इस खुले दरवाजे की नीति के आधार और परिणाम का विश्लेषण आवश्यक है। परिवारवाद और जातिवाद भारतीय राजनीति में बहुत प्रभावी हो गया है। अधिकतर राजनैतिक दल परिवार आधारित हैं। परिवार, जाति और धर्म भारतीय जनमानस में रचे-बसे हैं। राजनीति के चतुर खिलाड़ियों ने इस का पूरा लाभ उठाकर जाति और धर्म पर आधारित राजनैतिक दल बना लिए। उन्होंने जनमानस की भावनात्मक कमजोरी का पूरा लाभ उठाकर सत्ता पर कब्जा करने में सफलता अर्जित कर ली। ऐसे नेताओं के परिवार के अधिकतर लोग किसी न किसी पद को प्राप्त करने में सफल हो गए। असंख्य छोटे-छोटे दल भी बन गए। ऐसे भी दल है, जिनके विधानसभा में एक या दो सदस्य है। ऐसे सब लोगों को अपने साथ जोड़ने के लिए भाजपा ने खुले प्रवेश की नीति अपना ली।

नरेन्द्र मोदी के दो कार्यकाल निश्चित रूप से देश और भाजपा दोनों के लिए बहुत सफल माने जा सकते हैं। इसी सफलता से उत्साहित होकर उन्होंने तीसरे कार्यकाल के लिए 400 पार का लक्ष्य रखा। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अधिक से अधिक लोगों को जोड़ना आवश्यक हो गया। इसी उद्देश्य से भाजपा ने खुले प्रवेश की नीति अपनाई। विचारणीय है कि क्या इस नीति से 400 पार करने में सफलता प्राप्त होगी। शायद नहीं। खुले प्रवेश की नीति इस धारणा पर आधारित है कि मतदाता वहीं करेंगे, जो उनके स्वयंभू नेता कहेंगे। यह धारणा जनमानस के वास्तविक आंकलन पर आधारित नहीं है। सत्य से परे वास्तविकता तो यह है कि अब साधारण नागरिक भी स्वयं राजनीति का विश्लेषण करने लग गया है। चौक, चौराहे और छोटी-छोटी चाय की दुकानों में भी राजनैतिक चर्चा सुनाई देती है। मतदाता अपने निर्णय खुद करने लगे हैं। लगता है, राजनेता अभी भी इस सच्चाई को नहीं जानते। पिछले वर्ष हुए राज्यों के चुनाव में ये स्पष्ट हो गया। कई ओपिनियन पोल फेल हुए। राजनैतिक दल भी सही आंकलन नहीं कर पाएं। उदाहरण के लिए सभी ने छत्तीसगढ़ को फिर से कांग्रेस की झोली में डाल दिया था, किन्तु वोटर ने भाजपा की झोली भर दी। इस तरह के परिणाम स्थानीय चुनाव में भी आने लगे हैं। कई स्थापित नेताओं को हारते भी देखा गया है। यह वोटर्स की मानसिक स्वतंत्रता का लक्षण है, जो प्रजातंत्र के लिए शुभ संकेत हैं।

            हमारा आंकलन यह है कि भाजपा के खुले दरवाजे की नीति बहुत लाभकारी नहीं है। कई अवसर वादी भी भाजपा में प्रवेश कर रहे हैं। उनकी कोई प्रतिष्ठा समाज में नहीं है। वे खुद के लिए कभी बहुत वोट प्राप्त नहीं कर सकें। कई ऐसे व्यक्ति भी भाजपा में आएं हैं, जिनकी सामाजिक एवं राजनैतिक प्रतिष्ठा भी बहुत अच्छी नहीं रही है। इससे भाजपा को लाभ की बजाएं हानि भी हो सकती है। कई बार नागरिक-मतदाता स्वयं को असहाय भी महसूस करता है कि उसके पास चयन के लिए उचित व्यक्ति उपलब्ध नहीं है। अतः खुली नीति से भाजपा को बहुत लाभ नहीं होगा।

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