झाबुआ

भूरी बाई को महामहिम राष्ट्रपति ने पद्मश्री से किया सम्मानित……. यह सम्मान पूरे प्रदेश एवं आदिवासी अंचल के लिये गौरव का विषय

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झाबुआ । भूरी बाई एक भारतीय भील कलाकार हैं। मध्य प्रदेश में झाबुआ जिले के पिटोल गाँव में जन्मी भूरी बाई भारत के सबसे बड़े आदिवासी समूह भीलों के समुदाय से हैं। उन्होंने मध्य प्रदेश सरकार, शिखर सम्मान द्वारा कलाकारों को दिए गए सर्वाेच्च राजकीय सम्मान सहित कई पुरस्कार जीते हैं। उन्हें 2021 में भारत के चौथे सर्वाेच्च नागरिक पुरस्कार पद्म श्री, से सम्मानित किया गया।


प्रारंभिक जीवन
पिटोल निवासी की भूरी बाई अपनी चित्रकारी के लिए कागज तथा कैनवास का इस्तेमाल करने वाली प्रथम भील कलाकार थी। भारत भवन के तत्कालीन निदेशक जे. स्वामीनाथन ने उन्हें कागज पर चित्र बनाने के लिए कहा।, इस तरह भूरी बाई ने अपना सफर एक भील कलाकार के रूप में शुरू किया। उस दिन भूरी बाई ने अपने परिवार के पैतृक घोड़े की चित्रकारी की और वह उजले कागज पर पोस्टर रंग के स्पर्श से उत्पन्न प्रभाव को देखकर रोमांचित हो उठी। ‘‘गांव में हमें पौधों तथा गीली मिट्टी से रंग निकालने के लिए काफी मेहनत करनी होती थी। और यहां, मुझे रंग की इतनी सारी छटाएं तथा बना-बनाया ब्रश दिया गया।’’ शुरू में भूरी बाई को बैठकर चित्रकारी करना थोड़ा अजीब लगा। किंतु चित्रकारी का जादू शीघ्र ही उन में समा गया। भूरी बाई अब भोपाल में आदिवासी लोककला अकादमी में एक कलाकार के तौर पर काम करती हैं। उन्हें मध्यप्रदेश सरकार से सर्वाेच्च पुरस्कार शिखर सम्मान (1986-87) प्राप्त हो चुका है। 1998 में मध्यप्रदेश सरकार ने उन्हें अहिल्या सम्मान से विभूषित किया।


भूरी बाई का कहना है कि हरेक बार जब भी वह चित्र बनाना शुरू करती हैं तो वह अपना ध्यान भील जीवन और संस्कृति के विभिन्न पहलुओं पर पुनरू केंद्रित करती हैं और जब कोई विशेष विषय-वस्तु प्रबल हो जाती है तो वह अपने कैनवास पर उसे उतारती हैं और उनके चित्रों में जंगल में जानवर, वन और इसके वृक्षों की शांति तथा गाटला (स्मारक स्तंभ), भील देवी-देवताएं, पोशाक, गहने तथा गुदना (टैटू), झोपड़ियां तथा अन्नागार, हाट, उत्सव तथा नृत्य और मौखिक कथाओं सहित भील के जीवन के प्रत्येक पहलू को समाहित किया गया है। भूरी बाई ने हाल ही में वृक्षों तथा जानवरों के साथ-साथ वायुयान, टेलीविजन, कार तथा बसों का चित्र बनाना शुरू किया है। वे एक दूसरे के साथ सहज स्थिति में प्रतीत हो रहे हैं। वह पहली आदिवासी महिला कलाकार हैं, जिन्होंने मध्य प्रदेश के झाबुआ में अपने गाँव की झोपड़ियों की दीवारों से परे पारंपरिक पिथोरा चित्रों को एक मामूली सुधार के साथ लेने का साहस किया। उन्होंने मिट्टी की दीवारों से लेकर विशाल कैनवस और कागज पर लोक कला को हस्तांतरित किया।,वह छह संतानों की माँ हैें। उन्होंने अपनी कला को अपने बच्चों को भी सिखाया है; उनकी दो बेटियाँ, छोटा बेटा और उनकी बहू इस कला का अभ्यास करते हैं।,
भूरी बाई की देश तथा विदेश में प्रदर्शनिया भी लगी जिसकी सर्वत्र सराहना हुईं वर्ष 2017 में सतरंगी- भील कला, ओजस कला, दिल्ली ,2017 मे ही  गिविंग पॉवर- ट्रेडिशन से कंटेम्परेरी तकष् ब्लूप्रिंट 21 $ एक्ज़िबिट 320, दिल्ली में 2010-2011में  वर्नैक्यलर , इन द कंटेम्परेरी, देवी कला फाउंडेशन, बैंगलोर, 2010 में अदर मास्टर्स ऑफ इंडिया- मुसी डू क्वाई ब्रांली, पेरिस, 2009 में नौ द ट्रीज़ हैव स्पोकेनष्, पुंडोले गैलरी, मुंबई, 2008 में फ्रीडम सेंटर फॉर इंटरनेशनल मॉडर्न आर्ट कोलकाता में इनके पारम्परिक चित्रों की प्रदर्शनियों की काफी सराहना हुई है ।
 पारम्परिक कला की हस्ती के रूप  में अपना स्थान बनाने वाली झाबुआ जिले की बेटी को पद्मश्री पुरस्कार मिलने से निश्चित ही हमारा प्रदेश एवं झाबुआ जिला गोरवान्वित हुआ है।

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