भागवत कथा के तीसरे दिन सृष्टि निर्माण, शिवपार्वती विवाह एवं ध्रुव चरित्र से श्रद्धालु हुए गदगद
झाबुआ । स्थानीय साई मंदिर परिसर मे श्रीमद भागवत कथा के तीसरे दिन कथा का प्रारंभ करते हुए पण्डित लोकेशानंद ने कहा कि भागवत कथा भगवत तुल्य होकर भवरोग को मिटाने वाली औषधि होती है । भागवत कथा जीवन को जीने की कला बताती है। तथा जीवन की व्यथा को दूर करती है । श्री सूतजी महाराज जब कथा कह रहे थे तब देवता अमृत कला लेकर आये और कहने लगे कि अमृत कला आप परीक्षित राजा को दे दीजिये और हमे कथा का अमृत पान करवाईये । सुखदेवजी ने राजा परीक्षित को कथा अमृत एवं अमृत कला के महत्व को बताया तथा दोनों के अंतर को बताया । बृमत कला कांच के उन टूकडो की तरह से इससे अमर तो हो जाते है किन्तु कथा उस मणी के समान है जो हजारों चमकीले कांच के टूकडो में भी अपना अलग महत्व रखती है। जीतनी समस्याऐ जीने मे आती है कथामृत के पान से चाहे जीये या न जीये किन्तु परमात्मा के चरणाविन्द मे स्थान मिल ही जाता है। कथा दुर्लभ होती है इसलिये कथा को अपने जीवन मे जीये उसे सिर्फ सुने भर नही । राजा परीक्षित ने सुखदेवजी से पुछा कि मरणासन्न को क्या करना चाहिये तो सुखदेवजी ने कहा कि जो जन्म है उसकी मृत्यु अटल है और उसे भगवत भजन करना चाहिये । क्योकि मृत्यु जीवन का शाशवत सत्य है इसलिये व्यक्ति को हर वा समे भगवन्नाम लेते रहना चाहिये ।
भागवत कथा के दौरान सृटि की रचना की व्याख्या करते हुए पण्डित लोकेशानन्द ने कहा कि इस कलिकाल में श्रीमद्भागवत पुराण हिन्दू समाज का सर्वाधिक आदरणीय पुराण है। इस ग्रन्थ में वेदों, उपनिषदों तथा दर्शन शास्त्र के गूढ़ एवं रहस्यमय विषयों को अत्यन्त सरलता के साथ निरूपित किया गया है। इसे भारतीय धर्म और संस्ति का विश्वकोश कहना अधिक समीचीन होगा। सैकड़ों वर्षों से यह पुराण हिन्दू समाज की धार्मिक, सामाजिक और लौकिक मर्यादाओं की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता आ रहा हैं। इस पुराण में सकाम कर्म, निष्काम कर्म, ज्ञान साधना, सिद्धि साधना, भक्ति, अनुग्रह, मर्यादा, द्वैत-अद्वैत, द्वैताद्वैत, निर्गुण-सगुण तथा व्यक्त-अव्यक्त रहस्यों का समन्वय उपलब्ध होता है। श्रीमद्भागवत पुराण वर्णन की विशदता और उदात्त काव्य-रमणीयता से ओतप्रोत है। यह विद्या का अक्षय भण्डार है। यह पुराण सभी प्रकार के कल्याण देने वाला तथा त्रय ताप-आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक आदि का शमन करता है। ज्ञान, भक्ति और वैरागय का यह महान् ग्रन्थ है। सृष्टि-उत्पत्ति के सन्दर्भ में इस पुराण में कहा गया है- एकोऽहम्बहुस्यामि। अर्थात् एक से बहुत होने की इच्छा के फलस्वरूप भगवान स्वयं अपनी माया से अपने स्वरूप में काल, कर्म और स्वभाव को स्वीकार कर लेते हैं। तब काल से तीनों गुणों- सत्व, रज और तम में क्षोभ उत्पन्न होता है तथा स्वभाव उस क्षोभ को रूपान्तरित कर देता है। तब कर्म गुणों के महत्त्व को जन्म देता है जो क्रमशरू अहंकार, आकाश, वायु तेज, जल, पृथ्वी, मन, इन्द्रियाँ और सत्व में परिवर्तित हो जाते हैं। इन सभी के परस्पर मिलने से व्यष्टि-समष्टि रूप पिंड और ब्रह्माण्ड की रचना होती है। यह ब्रह्माण्ड रूपी अण्डां एक हजार वर्ष तक ऐसे ही पड़ा रहा। फिर भगवान ने उसमें से सहस्त्र मुख और अंगों वाले विराट पुरुष को प्रकट किया। उस विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिओं से क्षत्रिय, जांघों से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए।
पण्डित जी आगे कहा कि विराट पुरुष रूपी नर से उत्पन्न होने के कारण जल को नार कहा गया। यह नार ही बाद में नारायण कहलाया। कुल दस प्रकार की सृष्टियाँ बताई गई हैं। महत्तत्व, अहंकार, तन्मात्र, इन्दियाँ, इन्द्रियों के अधिष्ठाता देव मन और अविद्या- ये छह प्रात सृष्टियाँ हैं। इनके अलावा चार वित सृष्टियाँ हैं, जिनमें स्थावर वृक्ष, पशु-पक्षी, मनुष्य और देव आते हैं। पार्वती और शिव के विवाह की कथा सुनाते हुए पण्डित लोकेानंद ने कहा कि भगवान शिव और पार्वती की शादी बड़े ही भव्य तरीके से आयोजित हुई। पार्वती की तरफ से कई सारे उच्च कुलों के राजा-महाराजा और शाही रिश्तेदार इस शादी में शामिल हुए, लेकिन शिव की ओर से कोई रिश्तेदार नहीं था, क्योंकि वे किसी भी परिवार से ताल्लुक नहीं रखते। जब शिव और पार्वती का विवाह होने वाला था, तो एक बड़ी सुंदर घटना हुई। उनकी शादी बहुत ही भव्य पैमाने पर हो रही थी। इससे पहले ऐसी शादी कभी नहीं हुई थी। शिव – जो दुनिया के सबसे तेजस्वी प्राणी थे – एक दूसरे प्राणी को अपने जीवन का हिस्सा बनाने वाले थे। उनकी शादी में बड़े से बड़े और छोटे से छोटे लोग शामिल हुए। सभी देवता तो वहां मौजूद थे ही, साथ ही असुर भी वहां पहुंचे। आम तौर पर जहां देवता जाते थे, वहां असुर जाने से मना कर देते थे और जहां असुर जाते थे, वहां देवता नहीं जाते थे। शिव पशुपति हैं, मतलब सभी जीवों के देवता भी हैं, तो सारे जानवर, कीड़े-मकोड़े और सारे जीव उनकी शादी में उपस्थित हुए। यहां तक कि भूत-पिशाच और विक्षिप्त लोग भी उनके विवाह में मेहमान बन कर पहुंचे।
भगवान शिव और देवी पार्वती की वंशावली के बखान की रस्म वर-वधू दोनों की वंशावली घोषित की जानी थी। एक राजा के लिए उसकी वंशावली सबसे अहम चीज होती है जो उसके जीवन का गौरव होता है। तो पार्वती की वंशावली का बखान खूब धूमधाम से किया गया। यह कुछ देर तक चलता रहा। आखिरकार जब उन्होंने अपने वंश के गौरव का बखान खत्म किया, तो वे उस ओर मुड़े, जिधर वर शिव बैठे हुए थे। सभी अतिथि इंतजार करने लगे कि वर की ओर से कोई उठकर शिव के वंश के गौरव के बारे में बोलेगा मगर किसी ने एक शब्द भी नहीं कहा। वधू का परिवार ताज्जुब करने लगा, ‘क्या उसके खानदान में कोई ऐसा नहीं है जो खड़े होकर उसके वंश की महानता के बारे में बता सक े?’ मगर वाकई कोई नहीं था। वर के माता-पिता, रिश्तेदार या परिवार से कोई वहां नहीं आया था क्योंकि उसके परिवार में कोई था ही नहीं। वह सिर्फ अपने साथियों, गणों के साथ आया था जो वित जीवों की तरह दिखते थे। वे इंसानी भाषा तक नहीं बोल पाते थे और अजीब सी बेसुरी आवाजें निकालते थे। वे सभी नशे में चूर और विचित्र अवस्थाओं में लग रहे थे। समाज के लोग, कुलीन राजा-महाराजा और पंडित बहुत घृणा से शिव की ओर देखने लगे और तुरंत फुसफुसाहट शुरू हो गई, ‘इसका वंश क्या है? यह बोल क्यों नहीं रहा है? हो सकता है कि इसका परिवार किसी नीची जाति का हो और इसे अपने वंश के बारे में बताने में शर्म आ रही हो।’
फिर नारद मुनि, जो उस सभा में मौजूद थे, ने यह सब तमाशा देखकर अपनी वीणा उठाई और उसकी एक ही तार खींचते रहे। वह लगातार एक ही धुन बजाते रहे । नारद ने सभी को बताया कि भगवान स्वयंभू हैं
‘नहीं, इनके माता-पिता ही नहीं हैं। इनकी कोई विरासत नहीं है। इनका कोई गोत्र नहीं है। इसके पास कुछ नहीं है। इनके पास अपने खुद के अलावा कुछ नहीं है।’ पूरी सभा चकरा गई। पर्वत राज ने कहा, ‘हम ऐसे लोगों को जानते हैं जो अपने पिता या माता के बारे में नहीं जानते। ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति हो सकती है। मगर हर कोई किसी न किसी से जन्मा है। ऐसा कैसे हो सकता है कि किसी का कोई पिता या मां ही न हो।’ नारद ने जवाब दिया, ‘क्योंकि यह स्वयंभू हैं। इन्होंने खुद की रचना की है। इनके न तो पिता हैं न माता। इनका न कोई वंश है, न परिवार। यह किसी परंपरा से ताल्लुक नहीं रखते और न ही इनके पास कोई राज्य है। इनका न तो कोई गोत्र है, और न कोई नक्षत्र। न कोई भाग्यशाली तारा इनकी रक्षा करता है। यह इन सब चीजों से परे हैं। यह एक योगी हैं और इन्होंने सारे अस्तित्व को अपना एक हिस्सा बना लिया है। इनके लिए सिर्फ एक वंश है ध्वनि। आदि, शून्य प्रति ने जब अस्तित्व में आई, तो अस्तित्व में आने वाली पहली चीज थी ध्वनि। इनकी पहली अभिव्यक्ति एक ध्वनि के रूप में है। ये सबसे पहले एक ध्वनि के रूप में प्रकट हुए। उसके पहले ये कुछ नहीं थे। यही वजह है कि मैं यह तार खींच रहा हूं।’िवपार्वती के विवाह प्रसंग पर भजनों पर मातायें बहिने नृत्य करने लगी ।
भा्रगवत कथा के तीसरे दिन ध्रुव चरित्र का वर्णन करते हुए हिन्दू धर्मग्रन्थों के अनुसार ध्रुव भगवान विष्णु के महान तपस्वी भक्त थे। वे उत्तानपाद जो स्वयंभू मनु के पुत्र थे के पुत्र थे। ध्रुव ने बचपन में ही घरबार छोड़कर तपस्या करने की ठानी। हिन्दू धर्मग्रंथों में वर्णित कथा के अनुसार राजा उत्तानपाद की दो रानियों ने दो पुत्रों को जन्म दिया। रानी सुनीति के पुत्र का नाम ध्रुव और सुरुचि के पुत्र का नाम उत्तम रखा गया। पिता की गोद में बैठने को लेकर सुरुचि ने ध्रुव को फटकारा तो माँ सुनीति ने पुत्र को सांत्वना देते हुए कहा कि वह परमात्मा की गोद में स्थान प्राप्त करने का प्रयास करे। माता की सीख पर अमल करने का कठोर व्रत लेकर ध््रा्रुव ने पांच वर्ष की आयु में ही राजमहल त्याग दिया और एक पैर पर खड़े होकर छह माह तक कठोर तप किया। बालक की तपस्या देख भगवान ने दर्शन देकर उसे उच्चतम पद प्राप्त करने का वरदान दिया। इसी के बाद बालक ध्रुव की याद में सर्वाधिक चमकने वाले तारे को नाम ध्रुवतारा दिया गया।
कथा के अन्त में महिला योग समिति कीसुश्री रूकमणी वर्मा के नेतृत्व में महिलाओं द्वारा पण्डित लोकेानंद का पुपमालाओं से स्वागत कर ाल श्रीफल दिया गया । कार्यक्रम का संचालन दिलीपसिंह वर्मा द्वारा किया गया । आरती के बाद प्रसादी का वितरण किया गया । शनिवार को भागवत कथा मे श्री कृष्ण जन्मोत्सव का प्रसंग सुनाया जावेगा ।