भागवत कथा की पूर्णाहूति हुई भजनों पर महिलाओं ने किया गरबा रास ।
झाबुआ । श्री साई मंदिर परिसर मे पण्डित लोकेशा नंदजी द्वारा की जा रही भागवत कथा के अन्तिम दिन भक्ति एवं श्रद्धा की बयार बही । खचाखच भरे पाण्डाल में पण्डित जी द्वारा भागवत कथा सुनाते हुए कहा कि शास्त्रों ने कहा कि शरीर मन के आधीन होता है, आत्मा कभी मरती नही है । अच्छा जीवन तो शीघ्रता से मर जाता है, बाल्यावस्था, जवानी की स्थिति शीघ्र समाप्त हो जाती है किन्तु वृद्धावस्था शीघ्र नही जाती है ।इसलिये जीव को परमात्मा का स्मरण प्रारंभ से करना चाहिये । उन्होने द्वारिकाधी भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रूकमणी विवाह का जिक्र करते हुए कहा कि हमारी संस्कृति में माताओं का स्थान प्रथम रहता है । भगवान के नाम के पहले देवी का नाम आता है। सीता राम- रूकमणी कृषण, लक्ष्मीनारायण आदि नाम का जिक्र करते हुए कहा कि माता का महत्व भगवान के समय से होता रहा है । उन्होने कहा कि लक्ष्मी के कारण ही मनुषय का स्थान बनता है। गरीब का नाम यदि पराराम हो तो उसे परा कहा जाता है , कुछ पैसा आ जावे तो तो परा से परसिया बन जाता है जब उसके पास पर्याग्प्त पेसा आ जावे तो उसे पराराम पुकारा जाता है । जीवन मे व्यवहार पैसे देख कर नही स्वभाव देख कर किया जाना चाहिये । दीपावली पर लक्ष्मीनारायण सहित लक्ष्मीजी का पूजन होना चाहिये ताकि लक्ष्मी स्थाई रूप से निवास कर सकें । उन्हाेने कहा कि अकेली लक्ष्मी का आव्हान करने पर वह उल्लु पर बैठकर आती है और उल्लु पर बैठ कर चली भी जाती है ।
पण्डित लोकेशानंद ने प्रद्युम्न जन्म की कथा सुनाते हुए उन्हे काम देवता का अवतार बताते हुए संभासुर राक्षस के मर्दन की कथा सुनाई । उन्होने कहा कि भगवान भक्त की कब आकर रक्षा करता है,पता ही नही चलता है। रति का अर्थ प्रेम होता है ओर काम के अवतार प्रद्युम्न से उसका विवाह होता है । 84 लाख योनियों में सिर्फ मनुष्य ही ऐसा जीव है जो प्रेम प्रकट कर सकता है। बिना प्रेम के ठाकुरजी नही मिल सकते है । कलिकाल में सिर्फ भक्ति को सरल बना कर, सरलता से जोड कर परमात्मा का अनुग्रह मिल सकता है ।जीवन मे हर पल मृत्यु की घंटी बजती रहती है। भगवान श्रीकृषण पर सत्राजित द्वारा मणी चोरी की कथा का जिक्र करते हुए जामवंत से लडाई करके मणी को प्राप्त करने तथा जामवंती से विवाह का प्रसंग सुनाते हुए पण्डित जी ने कहा कि अच्छा काम करने वालों पर अक्सर लोग टिका टिप्पणी करते ही है। किन्तु हमे बिना सत्यजाने किसी पर भी आरोप नही लगाना चाहिये । यदि आप सत्य के साथ है तो कोई भी आपका अहित नही कर सकता है । मनुषय जीवन में कभी अच्छा तो कभी बुरा वक्त आता ही है किन्तु हमे परमात्मा पर विशवास रखते हुए कभी विचलित नही होना चाहिये ।। भक्त का भाव सदैव श्रेष्ठ होना चाहिये । भगवान के दर्शन के लिये आध्यात्म की आंख का खुला होना जरूरी है इससे परमात्मा का निचित ही कृपा बरसती है।
पण्डित जी ने कहा कि परमात्मा भी स्वयं दहेज प्रथा के विरोधी रहे है। घर में बहु आये तो दहेज के रूप में क्या क्या लाई पुछने की बजाय वह क्या क्या छोड कर आई । माता,पिता,भाई, बहिन, भाभी आदि को छोड कर समर्पण भाव से दुसरे परिवार में आती है, बिना अस्तित्व के ही वह दुसरों के अस्तित्व को खडा करती है। किसी भी कन्या को दहेज के लिये प्रताडित नही होना पडे इसकेलिये समग्र समाज को कदम उठाना चाहिये । पण्डित लोकेशानंद ने इस अवसर पर भोमासूर राक्षस वध, थिरुपाल वध, के साथ ही स्रुदामा चरित्र सुनाते हुए कहा कि सुदामा का अर्थ ही वह सत्य आत्मा है जिसने सभी इन्द्रियों को जीत लिया है । वह भगवान से कुछ मांगता नही है, सखा भाव का उदाहरण देते हुए सांदीपनी आश्रम में ापित चने सुदामा ने स्वयं खाकर कृण को दरिद्रता के श्राप से बचाया था । पत्नी सुशीला भी यथा नाम तथा गुण की नारी थी उसने कृण के लिये 3 मुट्ठी चावल भेज कर मित्रता का पराकाठा को प्रकट किया उसके बदले श्रीकृण ने मित्र सुदामा को भरपुर वैभव प्रदान किया । मित्र कभी देते है तो दिखावा नही करते है। इस अवसर पर सुभद्र अर्जुन विवाह, एवं श्रीकृष्ण के परमालोक प्रस्थान,यादव वां के समाप्त होने , दत्तात्रय अवतार एवं कलियुग वर्णन का जिक्र किया ।भजनों पर महिलाओं द्वारा गरबा रास भी किया गया ।
इस अवसर पर लेबड से प्रभादेवी गौतम,सहित विाट अतिथियों एवं विभिन्न समाजों ने कथामृत का पान कर पण्डितजी का स्वागत किया । आरती के पश्चात कथा का विराम हुआ । प्रसादी वितरण के साथ सप्त दिवसीय भागवत का समापन हुआ । कार्यक्रम का संचालन दिलीपसिंह वर्मा ने किया ।