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स्वयं के दोषों की गुरु के समक्ष आलोचना करने से आत्मा की शुद्धि होती हे ।’’ प्रवर्तक जिनेन्द्रमुनिजी मसा.
झाबुआ । 4 अगस्त गुरूवार को स्थानक भवन में पूज्य जिनेन्द्रमुनिजी ने कहा कि संसार में कुमार्ग पर चलने वाले ज्यादा है ,सुमार्ग पर चलने वाले बहुत कम है । जीव को कुमार्ग पर जाने से क्या नुकसान होगा, कितना अहित होगा यह उसने जाना ही नही । उसे ऐसा लगा ही नही । सुमार्ग पर चलने से सुख मिलता है ,कुमार्ग पर चलने से दुःख होता है । कुमार्ग- सुमार्ग की सही जानकारी वितराग धर्म से होती है । मै कुमार्ग छोड कर सुमार्ग को ग्रहण करू, ऐसी भावना होना चाहिये । अपने आराध्य तीर्थंकर भगवान को केवल ज्ञान प्राप्त होने के बाद अनेक देवता भगवान के पास आकर भगवानकी स्तुति,जयकार करते है । परन्तु भगवान उसमे लीन नही होते है । भगवान ने जो कहा वह करना, जो किया वह नही करना । आपने आगे कहा कि क्षायिक भाव श्रेष्ठ है । मोहनीय कर्म का क्षय होना क्षायिक भाव है । साधक आत्मा दिन भर के अतिचारों की आलोचना करने के लिये राइसिय, देवसीय प्रतिक्रमण करते है । तीर्थंकर भगवान दोष रहित होते है, उन्हे प्रतिक्रमण करने की आवश्यकता नही रहती है । छ द्दमस्थ साधु-साध्वी, श्रावक श्राविका को प्रतिक्रमण करना आवश्यक है, चाहे उनकों दोष लगे या न लगें । जानकर दोष नही लगाते है । दोष व्रतों की स्मृति नही होना, अभ्यास नही होना, देखा-देखी के कारण, धैर्य के अभाव के कारण लगते है । उन सभी दोषों का प्रतिक्रमण करना चाहिये । दोष 4 प्रकार के होते है, अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार । उस नियम के विरुद्ध विचार आना अतिक्रम है । मन में जरा भी पाप के लिए तत्पर होने का विचार आना व्यतिक्रम है । पाप की पूरी तेैयारी कर लेना अतिचार है, प्रायश्चित करना अनाचार है । पाप कर डालना अतिचार हे । अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार तक के दोषी की प्रतिक्रमण करने से शुद्धि हो जाती हे । अनाचार के लिये दोष लगने पर गुरू के समक्ष आलोचना करना, प्रायश्चित लेने से आत्मा की शुद्धि होती है । जिन दोषों की मुझे स्मृति है, जिन दोषों की याद नही है उन दोषों का भी प्रतिक्रमण करना चाहिये । यदि प्रतिक्रमण नही किया तो वह विराधक की श्रेणी मे आता है । दोषों का परिमार्जन सभी साधकों के लिये आवश्यक है । भीक्षा के लिये गये साधु को भी भीक्षा के बाद गुरू के समक्ष आलोचना करना पडती है । गोचरी के पश्चात साधु को भी गुरू के समक्ष आलोचना करना पडती है । आलोचना करने से जो दोष लगते है, उनकी भी शुद्धि होती है । आलोचना करने से आत्मा में सरलता का भाव आता है । जिसके हृदय में छल- कपट- माया भरी है , वह आलोचना नही कर सकता है ।शुद्ध भाव से आलोचना करने से व्यक्ति की इज्जत बढती है । चाहे व्यक्ति ने व्रत अंगीकार नही किये हो । जो भी गलती हो जायें उनकी आलोचना करने से आत्मा की शुद्धि होती है ।
’भगवान की वाणी सुनकर आचरण में उतारने वाला जीव भगवान के समान भगवान बन जाता हे ।’
अणुवत्स पूज्य संयतमुनिजी मसा. ने कहा कि भगवान महावीर स्वामी ने केवल ज्ञान प्राप्त होने के बाद जो भाव ,विचार ,व्यक्त किये थे, वे हमारे लिये कल्याणकारी, मंगलकारी है । जो सर्वज्ञ है, वे सभी को सर्वज्ञ बनाने के भाव वाले होते है । भगवान की वाणी सुनकर आचरण में उतारने वाला जीव भगवान के समान ही भगवान बन जाता है । भगवान राग द्वेष से रहित है । उन्होने जो भी बताया वो अपने हित के लिये है, उसे आचरण मे उतारना है । आज व्यक्ति एक दूसरें पर विश्वास नही करते है, अंदर अविश्वास भरा रहता है। एक दुसरे को उधार देने पर भी मन मे अविश्वास रहता है कि वह वापस चुकायेगा या नही । मनुष्य माया-कपट की प्रधानता वाले है, संसार में प्रायः ऐसा ही चलता रहता है । दिखावा करना भी माया है । अनेक बार व्यक्ति छल-कपट का प्रयोग करता है, सामने वाला भीऐसा ही करता है , यही क्रम संसार में चलता रहता हे । धर्म में भी व्यक्ति दिखावा करता है, वह भी माया है । थोडा करता है, दिखावा ज्यादा करता है । कुछ साधु भी माया करते है, परन्तु साधु की माया थोडे समय की होती है, गृहस्थी की लंबे समय की होती हे । गृहस्थ को कभी कभी मजबुरी मे माया करना पडती है , फिर भी माया दोष तो हे ही ।साधु प्रायश्चित कर शुद्ध होते है ।
’आत्म लक्ष्य से आराधना करने वाला माया-कपट नहीं करता है ।’’
आपने आगे कहा कि जीव का लक्ष्य यदि मोक्ष का है तो, वह छल कपट, माया नही करेगा । गृहस्थ जीवन में जीव फंसा हुआ है, उसे महसूस हो जाये कि छल कपट से दुःख मिलेगा तो उसका निकलने का मन होगा , वह ऐसा नही करेगा । यदि इसी में अच्छा लगें तो निकलने का मन नही होगा । सावधानी हटी दुर्घटना घटी चरितार्थ होगी । करोडपति बनने की इच्छा कभी-कभी विकट समय आने पर व्यक्ति को भी भीख मांगने पर मजबुर कर देती है ।
’तपस्या की जिसने ज्योत जगाई,।
देते है तपस्वी को शत शत बधाई ।।’’
मास क्षमण तप की ओर अग्रसर श्रीमती राजकुमारी कटारिया एवं श्रीमती सोनल कटकानी ने 27 उपवास,श्रीमती रश्मि मेहता ने 25 उपवास, श्रीमती आरती कटारिया, श्रीमती रश्मि, निधि, निधिता रूनवाल, श्रीमती चीना, नेहा घोडावत ने 24 उपवास, श्री अक्षय गांधी ने 23 उपवास के प्रत्याख्यान लिए। कु. खुशी चौधरी के 16 उपवास श्रीमती सोना कटकानी के 8 श्रीमती आजाद बहिन श्रीमाल के 9 उपवास की पूर्णता हुई । संघ द्वारा तप की बोली से बहुमान कर प्रभावना भेंट की गई । 10 तपस्वी उपवास, एकासन, निवि तप से वर्षी तप, श्रीमती पुर्णिमा सुराणा सिद्धितप, श्रीमती उषा ,सविता, पद्मा सुमन रूनवाल मेरू तप कर रही हे । तेला- आयम्बिल तप की की लडी गतिमान है । व्याख्यान का संकलन सुभाष ललवानी द्वारा किया गया संचालन केवल कटकानी ने किया ।