झाबुआ से राजेंद्र सोनी की रिपोर्ट
टंट्या मामा के पदचिन्हो पर चल कर हमे देश के लिये काम करना होगा- भाजपा जिलाअध्यक्ष ओम शर्मा
भाजपा ने क्रांतिवीर टंट्या मामा को स्मरण कर पुष्पाजंलि अर्पित की
झाबुआ । स्वाधीनता के स्वर्णिम अतीत में जाँबाजी का अमिट अध्याय बन चुके आदि विद्रोही टंट्या भील अंग्रेजी दमन को ध्वस्त करने वाली जिद तथा संघर्ष की मिसाल है। टंट्या भील के शौर्य की छबियां वर्ष 1857 के बाद उभरीं। जननायक टंट्या ने ब्रिटिश हुकूमत द्वारा ग्रामीण जनता के शोषण और उनके मौलिक अधिकारों के साथ हो रहे अन्याय-अत्याचार की खिलाफत की। दिलचस्प पहलू यह है कि स्वयं प्रताडि़त अंग्रेजों की सत्ता ने जननायक टंट्या को “इण्डियन रबिनहुड’’ का खिताब दिया। जननायक टंट्या भील को वर्ष 1889 में फाँसी दे दी गई। खंडवा जिले की पंधाना तहसील के बडदा में 1842 में भाऊसिंह के यहाँ एक बालक ने जन्म लिया, जो अन्य बच्चो से दुबला-पतला था । निमाड में ज्वार के पौधे को सूखने के बाद लंबा, ऊँचा, पतला होने पर ‘तंटा’ कहते है इसीलिए ‘टंट्या’ कहकर पुकारा जाने लगा ।
टंट्या की माँ बचपन में उसे अकेला छोड़कर स्वर्ग सिधार गई । भाऊसिंह ने बच्चे के लालन-पालन के लिए दूसरी शादी भी नहीं की । पिता ने टंट्या को लाठी-गोफन व तीर-कमान चलाने का प्रशिक्षण दिया । टंट्या ने धर्नुविद्या में दक्षता हासिल कर ली, लाठी चलाने और गोफन कला में भी महारत प्राप्त कर ली । युवावस्था में उसे पारिवारिक बंधनों में बांध दिया गया द्य कागजबाई से उनका विवाह कराकर पिता ने खेती-बाड़ी की जिम्मेदारी उसे सौप दी । टंट्या की आयु तीस बरस की हो चली थी, वह गाँव में सबका दुलारा था, युवाओ का अघोषित नायक था । उसका व्यवहार कुशलता और विन्रमता ने उसे लोकप्रिय बना दिया । टंट्या के द्वारा कई गरीब आदिवासी परिवार की बहिन बेटियों की शादी कराई गई इसलिये उन्हे सभी मामा के नाम से पुकारने लगे और उनका नाम टंट्या मामा प्रचलित हो गया का । अंग्रेजी शासनकाल में उसने अंग्रेजी को मारा काटा था तथा अग्रेजों का धन लूट कर गरीबों में बाट देता था । लोगो में उनका राजा की तरह उसका सम्मान होने लगा । सेवा और परोपकार की भावना में उसे ‘जननायक’ बना दिया । उसकी शक्ति निरंतर बढ़ने लगी । युवाओ को उसने संगठित करना शुरू कर दिया । टंट्या का नाम सुनकर साहूकार कांपने लगे ।-उक्त उदबोधन मंगलवार 4 दिसम्बर को स्थानीय बस स्टेंड स्थित टंट्या मामा की प्रतिमा पर माला अप्रण एवं पूजनादि करने के बाद भाजपा नेता एवं विधानसभा झाबुआ प्रत्याशी गुमानसिंह डामोर ने उपस्थित जन समुदाय कोटंट्या मामा के शहादत दिवस पर संबोधित करते हुए कहीं । इस अवसर पर जिला भाजपा अध्यक्ष ओम प्रकाश शर्मा, दोलत भावसार, कल्याणसिंह डामोर, ओपी राय, अजय पोरवाल, अंकुर पाठक, भूपेश सिंगोड,राजेन्द्र सोनी, अर्पित कटकानी, शैलेन्द्र सोलंकी, बलवन मेडा,, अंकित भाबर, सुरभान गुण्डियास, मुकेश गवली, मुकेश चन्द्रल, कन्हैयालाल लाखेरी, मांगीलाल भूरिया, सहित बडी संख्या में भाजपाईयों ने टंटया मामा की प्रतिमा पर पुषपाजंलि अर्पित की ।
आयोजित श्रद्धांजलि सभा को संबोधित करते हुए गुमानसिंह डामोर ने कहा कि पुलिस ने टंट्या को गिरफ्तार करने के लिए विशेष दस्ता बनाया, जिसमे दक्ष पुलिस वालो को रखा गया । ‘टंट्या पुलिस’ ने कई जगह छापे मारे, किन्तु टंट्या पकड़ में नहीं आया । सन 1880 में टंट्या ने अंग्रेजी हुकूमत को हिला दिया, जब उसने चौबीस गाँवों में डाके डाले, भिन्न-भिन्न दिशाओं और गाँवों में डाके डाले जाने से टंट्या की प्रसिद्धि चमत्कारी महापुरुष की तरह हो गई । डाके से प्राप्त जेवर, अनाज, कपडे वह गरीबो को दे देता था द्य पुलिस ने टंट्या के गिरोह को खत्म करने के लिए उसके सहयोगी बिजानिया को पकडकर फांसी दे दी, जिससे टंट्या की ताकत घट गयी। टंट्या को पकडने के लिए इंग्लेंड से आए नामी पुलिस अफसर की नाक टंट्या ने काट दी द्य सन 1888 में टंट्या पुलिस और मालवा भील करपस भूपाल पल्टन ने उसके विरुद्ध सयुक्त अभियान चलाया । टंट्या का प्रभाव मध्यप्रांत, सी-पी क्षेत्र, खानदेश, होशंगाबाद, बैतुल, महाराष्ट्र के पर्वतीय क्षेत्रो के अलावा मालवा के पथरी क्षेत्र तक फैल गया । टंट्या ने अकाल से पीडि़त लोगो को सरकारी रेलगाड़ी से ले जाया जा रहा अनाज लूटकर बटवाया । टंट्या मामा के रहते कोई गरीब भूखा नहीं सोयेगा, यह विश्वास भीलो में पैदा हो गया था । टंट्या ने अपने बागी जीवन में लगभग चार सौ डाके डाले और लुट का माल हजारों परिवारों में वितरित किया द्य टंट्या अनावश्यक हत्या का प्रबल विरोधी था । जो विश्वासघात करते थे, उनकी नाक काटकर दंड देता था । टंट्या का कोप से कुपित अंग्रेजो और होलकर सरकार ने निमाड में विशेष अधिकारियो को पदस्थ किया । जाबाज, बहादुर साथियों-बिजानिया, दौलिया, मोडिया, हिरिया के न रहने से टंट्या का गिरोह कमजोर हो गया ।पुलिस द्वारा चारो तरफ से उसकी घेराबंदी की गई । भूखे-प्यासे रहकर उसे जंगलो में भागना पड़ा । कई दिनों तक उसे अन्न का एक दाना भी नहीं मिला । जंगली फलो से गुजर करना पड़ा । टंट्या ने इस स्थिति से उबरने के लिए बनेर के गणपतसिंह से संपर्क साधा जिसने उसकी मुलाकात मेजर ईश्वरी प्रसाद से पातालपानी (महू) के जंगल में कराई, किन्तु कोई बात नहीं बनी । 11 अगस्त, 1896 को श्रावणमास की पूर्णिमा के पावन पर्व पर जिस दिन रक्षाबंधन मनाया जाता है, गणपत ने अपनी पत्नी से राखी बंधवाने का टंट्या से आग्रह किया । टंट्या अपने छह साथियों के साथ गणपत के घर बनेर गया । आवभगत करके गणपत साथियों को आँगन में बैठाकर टंट्या को घर में ले गया, जहा पहले से ही मौजूद सिपाहियों ने निहत्थे टंट्या को दबोच लिया । खतरे का आभास पाकर साथी गोलिया चलाकर जंगल में भाग गए । टंट्या को हथकड़ीयो और बेडि़यों में जकड दिया गया । कड़े पहरे में उसे खंडवा से इंदौर होते हुए जबलपुर भेजा गया । जहा-जहा टंट्या को ले जाया गया, उसे देखने के लिए अपार जनसमूह उमडा । 19 अक्टूम्बर, 1889 को टंट्या को फांसी की सजा सुनाई गयी । तथा 4 दिसम्बर 1889 को फांसी दे दी गई । 1857 की क्रांति के बाद टंट्या भील अंग्रेजो को चुनौती देने वाला ऐसा जननायक था, जिसने अंग्रेजी सत्ता को ललकारा । पीडितो-शोषितों का यह मसीहा मालवा-निमाड में लोक देवता की तरह आराध्य बना, जिसकी बहादुरी के किस्से हजारों लोगो की जुबान पर थे । बारह वर्षों तक भीलो के एकछत्र सेनानायक टंट्या के कारनामे उस वक्त के अखबारों की सुर्खिया होते थे । गरीबो को जुल्म से बचाने वाले जननायक टंट्या का शव उसके परिजनों को सौपने से भी अंग्रेज डरते थे । टंट्या को फांसी दी गयी या गोली मारी गई, इसका कोई सरकारी प्रमाण नहीं है, किन्तु जनश्रुति है कि पातालपानी के जंगल में उसे गोली मारकर फेक दिया गया था । जहा पर इस ‘वीर पुरुष’ की समाधि बनी हुई है वहा से गुजरने वाली ट्रेन रूककर सलामी देती है । सैकडो वर्षों बाद भी ‘टंट्या भील’ का नाम श्रद्धा से लिया जाता है । अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ बगावत करने वाले टंट्या का नाम इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णाक्षरो से अंकित है ।श्री गुमानसिंह डामोर ने सभी को संकल्प दिलाते हुए कहा कि मामा केसंकल्प को साकार करने के लिये हमे गरीबी, अिक्षा कुरूतियों को दूर करने तथा उनके अधुरे कार्यो को पूरा करने में अपनी भूमिका निभाना है।
जिला भाजपा अध्यक्ष ओम प्रकाश शर्मा ने भी अपने संबोधन में टंट्या मामा के जीवन वृत पर प्रकाश डालते हुए कहा कि मामा ने अंग्रेजों के छक्के छुडा दिये थे उन्हे गिरफ्तार करने में अग्रेजी हुकुमत को सात साल का समय लगा और जबलपुर जैल में उन्हे फांसी दे दी गई थी ।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए कल्याणसिंह डामोर ने भी टंट्या मामा को जन नायक बताते हुए आदिवासी समाज का देवतुल्य व्यक्तित्व बताया । आभार प्रर्दान अजजा मोर्चा के जिलाध्यक्ष शैलेंन्द्रसिंह सोलंकी ने व्यक्त किया ।
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