झाबुआ से राजेंद्र सोनी की रिपोर्ट
झाबुआ । महाभारत के धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य के इस युद्ध में कौरव और पाडंवों की सेना जब आमने-सामने थी। अर्जुन के सारथी श्रीकष्ण ने रथ को दोनों सेनाओं के मध्य आगे ला खड़ा कर दिया, जहां अर्जुन ने भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य और अपने भाइयों, रिश्तेदारों को विरोधी खेमे मे खड़ा पाया। अर्जुन की हिम्मत जवाब दे गई, तब उन्होंने श्री कृष्ण से कहा कि अपने स्वजनों और बेगुनाह सैनिकों के अंत से हासिल मुकुट धारण कर मुझे कोई सुख हासिल नहीं होगा। अर्जुन पूरी तरह अवसादग्रस्त हो चुके थे। अपने अस्त्र-शस्त्र श्री कृष्ण के सम्मुख भूमि पर रख उन्होंने सही मार्गदर्शन चाहा। और तब ’’गीता’’ का जन्म हुआ। श्रीकष्ण और अर्जुन में जो संवाद हुआ, उसे महर्षि व्यास ने सलीके से लिपीबद्ध किया वही ’’भगवद्गीता’’ है। उक्त बात गीता जयंती महोत्सव के द्वितीय चरण के प्रथम दिवस आचार्य पण्डित गिरधर दाहोद ने श्री गोवर्धननाथजी की हवेली में आयोजित त्रि दिवसीय श्रीभगवद्गीता पर अध्याय प्रथम से अध्याय चतुर्थ तक के लोकों की व्याख्या करते हुए कहीं । उन्होने कहा कि जिसकी बुद्धि सत्य है , परिपक्व है वे ही गीता रूपी दुग्ध का पान करते है। धृतराट्र का अर्थ बताते हुए उन्होने कहा कि जिसने पुत्रों के मोह मे राजसत्ता पकड रखी है, जिसकी उपरी एवं अन्तर्ज्योति समाप्त हो चुकी है वही धृतराट्र कहलाता है। ऐसे लोगों को दुर्योधन जैसी संताने मिलती है जिनके नाम के आगे ही दु आता है।महाभारत प्रसंग का जिक्र करते हुए उन्होने कहा कि श्रीकृण ने मध्यस्त बन कर सिर्फ पांच गांव पाण्डवों के लिये मागे थे किन्तु दुर्योधन ने सुई की नोक के बराबर भी जमीन देने से इंकार कर दिया और इसका प्रादूर्भाव महाभारत के रूप में हुआ । कुरूक्षेत्र का अर्थ ही वह धरती है जहां धर्म और कर्म साथ साथ होते है। मानव शरीर भी एक तरह से कुरूक्षेत्र ही जहां प्रातः उठते ही कर्म प्रारंभ हो जाते है ।
पण्डित गिरधर शास्त्री ने कहा कि शरीर रूपी कुरूक्षेत्र को धर्मक्षेत्र बनाने के लिये अपने अन्दर निहीत अभिमान को समाप्त करना होगा । गीता के प्रथम लोक में ही धृतराट्र की चिंता प्रारंभ हो जाती है, वह भगवान को भुल कर अपने परिवार के हित को देखता है। महाभारत के युद्ध का जिक्र करते हुए उन्होने कहा कि कौरवों की सेना अपर्याप्त थी वही पाण्डवों की सेना पर्याप्त । कोरवों की सेना मे सच्चे मन से लडने वाले कोई नही थे तो पाण्डवों के पक्ष में सभी समर्पित भाव के यौद्धा थे । गीता वह रहस्यमय ग्रंथ है जिसे समझने के लिये पूरा जीवन भी अधुरा रहता है। अर्जुन को अपने ही परिजनों के मध्य युद्ध मेदान में खडा देख अवसाद हुआ तो अपने कहे को और स्पष्ट कर श्रीकष्ण ने अर्जुन को समझाइश दी की उसके शत्रु तो महज मानव शरीर हैं। अर्जुन तो सिर्फ उन शरीरों का अंत करेगा, आत्माओं का नहीं। हताहत होने के बाद सभी आत्माएं उस अनंत आत्मा में लीन हो जाएंगी। शरीर नाशवान हैं लेकिन आत्मा अमर है। आत्मा को किसी भी तरह से काटा या नष्ट नहीं किया जा सकता। तब श्रीष्ण ने परमतत्व की उस प्रति का दर्शन जिसमें अनंत ब्रह्मांड निहित है को अर्जुन समझ सकें कि वह जो भी कर रहा है वह विधि निर्धारित है।
श्रीमदभगवतगीता जयंती के द्वितीय चरण पर आयोजित प्रवचन के अवसर पर पण्डित गिरधरास्त्री का स्वागत एवं पोथी पूजन नारायण मालवीय द्वारा किया गया । कार्यक्रम का संचालन करते हुए डा. केके त्रिवेदी ने गीता की महत्ता पर प्रकाश डाते हुए इसे प्रत्येक मानव के लिये कल्पवृक्ष बताते हुए इसके हर लोक में छिपे सन्देश के बारे में बताया । इस अवसर पर आयोजक समिति के हरिचन्द्र शाह, कन्हैयालाल राठौर, राजेन्द्र शाह, राजेन्द्र सोनी, जितेन्द्र शाह, गाकूले आचार्य, गोपालसिंह चौहान, सौभाग्यसिंह चौहान, निरजंनभाई, मनोहर नीमा, श्रीमती किरण नीमा, पुपा नीमा, संगीता शाह, नीना बहिन, दयराम पाटीदार सहित बडी संख्या में श्रद्धालुजन उपस्थित थे । अन्त में गीताजी की आरती कर प्रसादी का वितरण किया गया ।
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